? अमृत माँ जिनवाणी से - २१० ?
"मूल्यवान मनुष्य भव"
एक बार बारामती में सेठ गुलाबचंद खेमचंदजी सांगली ने पर्युषण पर्व में पूज्य आचार्यश्री के उपदेश तथा प्रेरणा से व्रत प्रतिमा ग्रहण करने का निश्चय किया।
उस दिन के उपदेश में अनेक मार्मिक एवं महत्वपूर्ण बातें कहते हुए महराज ने कहा था कि तुम लोगों की असंयमी वृत्ति देखकर हमारे मन में बड़ी दया आती है कि तुम लोग जीवन के इतने दिन व्यतीत हो जाने पर भी अपने कल्याण के विषय में जाग्रत नहीं होते हो।
? अमृत माँ जिनवाणी से - २०९ ?
"मधुर व्यवहार"
एक बार पूज्य शान्तिसागरजी महराज अहमदनगर (महाराष्ट्र प्रांत) के पास से निकले। वहाँ कुछ श्वेताम्बर भाइयों के साथ एक श्वेताम्बर साधु भी थे। वे जानते थे कि महराज दिगम्बर जैन धर्म के पक्के श्रद्धानी हैं। वे हम लोगों को मिथ्यात्वी कहे बिना नहीं रहेंगे, कारण की नेमीचंद सिद्धांत चक्रवर्ती ने हमें संशय मिथ्यात्वी कहा है।
उस समय श्वेताम्बर साधु ने मन में अशुद्ध भावना रखकर प्रश्न किया, "महराज आप हमक
? अमृत माँ जिनवाणी से - २०८ ?
"लोक के विषय में अनुभव"
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का लोक के बारे में भी अनुभव भी महान था। वे लोकानुभव तथा न्यायोचित सद्व्यवहार के विषय में एक बार कहने लगे, "मनुष्य सर्वथा खराब नहीं होता। दुष्ट के पास भी एकाध गुण रहता है। अतः उसे भी अपना बनाकर सत्कार्य का संपादन करना चाहिए। व्यसनी के पास भी यदि महत्व की बात है तो उससे भी काम लेना चाहिए।"
उन्होंने यह भी कहा था, "ऐसी नीति है कि मनुष्य को देखकर काम कहना औ
? अमृत माँ जिनवाणी से - २०७ ?
"जन्मभूमि में भी वंदित"
कल के प्रसंग में हमने देखा की गृहस्थ जीवन से ही पूज्य शान्तिसागरजी महराज की विशेष सत्यनिष्ठा के कारण कितनी मान्यता थी।
इस सत्यनिष्ठा, पुण्य-जीवन आदि के कारण भोजवासी इनको अपने अंतःकरण का देवता सा समझा करते थे। इनके प्रति जनता का अपार अनुराग तब ज्ञात हुआ, जब इस मनस्वी सत्पुरुष ने मुनि बनने की भावना से भोज भूमि की जनता को छोड़ा था।
आज भी भोज के पुराने लोग इनकी गौरव गाथा
? अमृत माँ जिनवाणी से - २०६ ?
"सत्य की आदत"
पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने कहा, "बचपन से ही हमारी सत्य का पक्ष लेने की आदत रही है। हमने कभी भी असत्य का पक्ष नहीं लिया। अब तो हम महाव्रती मुनि हैं।
हम अपने भाइयों अथवा कुटुम्बियों का पक्ष लेकर बात नहीं करते थे। सदा न्याय का पक्ष लेते थे, चाहे उसमे हानि हो। इस कारण जब भी लेन देन में वस्तुओं के भाव आदि में झगड़ा पड़ जाता था, तब लोग हमारे कहे अनुसार काम करते थे।
रुद्रप्पा हमारे पास आया
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
प्रस्तुत प्रसंग में अंतिम पैराग्राफ को अवश्य पढ़ें। उसको पढ़कर आपको दिगम्बर मुनि महराज की चर्या में सूक्ष्मता का अवलोकन होगा तथा ज्ञात होगा कि मुनि महराज के लिए शरीर महत्वपूर्ण नहीं होता, उनके लिए महत्वपूर्ण होता है तो केवल अहिंसा व्रतों का भली भाँति पालन।
अहिंसा व्रतों के भली-भांती पालन हेतु अपने शरीर का भी त्याग कर देते हैं। यह बात पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र को देखकर अवश्य ही सभी को स्पष्ट हो जायेगी।
? अमृत माँ जिनवाणी से -
? अमृत माँ जिनवाणी से - २०४ ?
"लौकिक जीवन भी प्रामाणिक जीवन था"
पूज्य शांतिसागरजी महराज का गृहस्थ अवस्था में लौकिक जीवन वास्तव में अलौकिक था। लोग लेन-देन के व्यवहार में इनके वचनों को अत्यधिक प्रामाणिक मानते थे। इनकी वाणी रजिस्ट्री किए गए सरकारी कागजातों के समान विश्वसनीय मानी जाती थी। इनके सच्चे व्यवहार पर वहाँ के तथा दूर-दूर के लोग अत्यंत मुग्ध थे।
?खेती के विषय में चर्चा?
मैंने पूंछा "महराज ! हिन्दी भाषा के प्राचीन पंडित
? अमृत माँ जिनवाणी से - २०३ ?
"आचार्यश्री जिनसे प्रभावित थे ऐसे
आदिसागर मुनि का वर्णन"
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ने एक आदिसागर (बोरगावकर) मुनिराज के विषय में बताया था कि वे बड़े तपस्वी थे और सात दिन के बाद आहार लेते थे। शेष दिन उपवास में व्यतीत करते थे। यह क्रम उनका जीवन भर रहा।
आहार में वे एक वस्तु ग्रहण करते थे। वे प्रायः जंगल में रहा करते थे। जब वे गन्ने का रस लेते थे, तब गन्ने के रस के सिवाय अन्य पदार्थ ग्रहण नहीं कर
? अमृत माँ जिनवाणी से - २०२ ?
"आचार्यश्री के दीक्षा गुरु देवेन्द्रकीर्ति
मुनि का वर्णन"
एक बार मैंने पूज्य शान्तिसागरजी महराज से उनके गुरु के बारें में पूंछा था तब उन्होंने बतलाया था कि "देवेन्द्रकीर्ति स्वामी से हमने जेठ सुदी १३ शक संवत १८३७ में क्षुल्लक दीक्षा ली थी तथा फाल्गुन सुदी एकादशी शक संवत १८७१ में मुनि दीक्षा ली थी। वे बाल ब्रम्हचारी थे, सोलह वर्ष की अवस्था में सेनगण की गद्दी पर भट्टारक बने थे।
उस समय उन्हो
? अमृत माँ जिनवाणी से - २०१ ?
"शेर आदि का उनके पास प्रेम भाव से
निवास व ध्यान कौशल"
पूज्य शान्तिसागरजी महराज गोकाक के पास एक गुफा में प्रायः ध्यान किया करते थे। उस निर्जन स्थान में शेर आदि भयंकर जंतु विचरण करते थे। प्रत्येक अष्टमी तथा चतुर्दशी को उपवास तथा अखंड मौन धारण कर ये गिरी कंदरा में रहते थे।
वहाँ अनेक बार व्याघ्र आदि हिंसक जंतु इनके पास आ जाया करते थे, किन्तु साम्यभाव भूषित ये मुनि
? अमृत माँ जिनवाणी से - २०० ?
"प्रगाढ़ श्रद्धा"
कलिकाल के कारण धर्म पर बड़े-बड़े संकट आये। बड़े-बड़े समझदार लोग तक धर्म को भूलकर अधर्म का पक्ष लेने लगे, ऐसी विकट स्थिति में भी पूज्य शान्तिसागरजी महराज की दृष्टि पूर्ण निर्मल रही और उनने अपनी सिंधु तुल्य गंभीरता को नहीं छोड़ा।
वे सदा यही कहते रहे कि जिनवाणी सर्वज्ञ की वाणी है। वह पूर्ण सत्य है। उनके विरुद्ध यदि सारा संसार हो, तो भी हमें कोई डर नहीं है। उनकी ईश्वर भक्ति तथा पवित्र तपश्चर्
? अमृत माँ जिनवाणी से - १९९ ?
"आगम के भक्त"
एक बार लेखक ने आचार्य महराज को लिखा कि भगवान भूतबली द्वारा रचित महाधवल ग्रंथ के चार-पाँच हजार श्लोक नष्ट हो गए हैं, उस समय पूज्य शान्तिसागरजी महराज को शास्त्र संरक्षण अकी गहरी चिंता हो गई थी।
उस समय मैं सांगली में और वर्षाकाल में ही मैं उनकी सेवा में कुंथलगिरी पहुँचा। बम्बई से सेठ गेंदनमलजी, बारामती से चंदूलालजी सराफ तथा नातेपूते से रामचंद्र धनजी दावड़ा वहाँ आये थे।
उनके स
? अमृत माँ जिनवाणी से - १९८ ?
"अपार तेजपुंज-२"
भट्टारक जिनसेन स्वामी ने बताया कि एक धार्मिक संस्था के मुख्य पीठाधीश होने के कारण मेरे समक्ष अनेक बार भीषण जटिल समस्याएँ उपस्थित हो जाया करती थीं। उन समस्याओं में गुरुराज शान्तिसागरजी महराज स्वप्न में दर्शन दे मुझे प्रकाश प्रदान करते थे। उनके मार्गदर्शन से मेरा कंटकाकीर्ण पथ सर्वथा सुगम बना है।
अनेक बार स्वप्न में दर्शन देकर उन्होंने मुझे श्रेष्ठ संयम पथ पर प्रवृत्त होने को प्रेरणा पूर्ण उ
? अमृत माँ जिनवाणी से - १९७ ?
"अपार तेज पुंज-१"
पिछले प्रसंग में भट्टारक जिनसेन स्वामी द्वारा पूज्य शांतिसागरजी महराज के बारे में वर्णन को हम जान रहे थे। उन्होंने आगे बताया-
पूज्य शान्तिसागरजी महराज की अलौकिक मुद्रा के दर्शन से मुझे कितना आनंद हुआ, कितनी शांति मिली और कितना आत्म प्रकाश मिला उसका में वर्णन करने में असमर्थ हूँ।
इन मनस्वी नर रत्न के आज दर्शन की जब भी मधुर स्मृति जग जाती है, तब मैं आनंद विभोर हो जाता हूँ। उ
? अमृत माँ जिनवाणी से - १९६ ?
"अपार तेजपुंज"
भट्टारक जिनसेन स्वामी ने पूज्य शान्तिसागरजी महराज के बारे में अपना अनुभव इस सुनाया-
सन् १९१९ की बात है, आचार्य शान्तिसागरजी महराज हमारे नांदणी मठ में पधारे थे। वे यहाँ की गुफा में ठहरे थे। उस समय वे ऐलक थे। उनके मुख पर अपार तेज था। पूर्ण शांति भी थी।
वे धर्म कथा के सिवाय अन्य पापाचार की बातों में तनिक भी नहीं पड़ते थे। मैं उनके चरणों के समीप पहुँचा, बड़े ध्यान से उनकी शांत मुद्
? अमृत माँ जिनवाणी से - १९५ ?
"दयाधर्म का महान प्रचार"
मार्ग में हजारों लोग आकर इन मुनिनाथ पूज्य शान्तिसागरजी महराज को प्रणाम करते थे, इनने उन लोगों को मांस, मदिरा का त्याग कराया है। शिकार न करने का नियम दिया है। इनकी तपोमय वाणी से अगणित लोगों ने दया धर्म के पथ में प्रवृत्ति की थी।
?आध्यात्मिक आकर्षण?
क्षुल्लक सुमतिसागरजी फलटण वाले सम्पन्न तथा लोकविज्ञ व्यक्ति थे।उन्होंने बताया- आचार्य महराज का आकर्षण अद्भुत था। इसी
? अमृत माँ जिनवाणी से - १९४ ?
"व्यवहार कुशलता"
पूज्य आचार्य शान्तिसागरजी महराज की व्यवहार कुशलता महत्वपूर्ण थी। सन् १९३७ में आचार्यश्री ने सम्मेदशिखरजी की संघ सहित यात्रा की थी, उस समय मैं उनके साथ-साथ सदा रहता था। सर्व प्रकार की व्यवस्था तथा वैयावृत्ति आदि का कार्य मेरे ऊपर रखा गया था।
उस अवसर पर मैंने आचार्यश्री के जीवन का पूर्णतया निरीक्षण किया और मेरे मन पर यह प्रभाव पड़ा कि श्रेष्ठ आत्मा में पाये जाने वाले सभी शास्त्रोक्त गुण
? अमृत माँ जिनवाणी से - १९३ ?
"महराज का पुण्य जीवन"
पूज्य शान्तिसागरजी महराज के गृहस्थ जीवन के छोटे भाई के पुत्र जिनगौड़ा पाटील से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के बारे में जानकारी लेने पर उन्होंने बताया-
हमारे घर शास्त्र चर्चा सतत चलती रहती थी। आचार्य महराज व्रती थे, इससे आजी माँ उनका विशेष ध्यान रखती थी। जब मैं ५-६ वर्ष का था, तब मुझे वे (महराज) दुकान के भीतर अपने पास सुलाते थे। वे काष्ठासन पर सोते थे। किन्तु मुझे गद्दे पर सुलाते थे।
? अमृत माँ जिनवाणी से - १९२ ?
"मुनिभक्त"
सातगौड़ा मुनिराज के आने पर कमण्डलु लेकर चलते थे और खूब सेवा करते थे। हजारों आदमियों के बीच में स्वामी का इन पर अधिक प्रेम रहा करता था।
वे भोजन को घर में आते तथा शेष समय दुकान पर व्यतीत करते थे। वहाँ वे पुस्तक बाँचने में संलग्न रहते थे।
उनकी माता का स्वभाव बड़ा मधुर था। वे हम सब लड़कों को अपने बेटे के समान मानती थी। वे हमें कहती थी, "कभी चोरी नहीं करना, झूठ नहीं बोलना, अधर्म नह
? अमृत माँ जिनवाणी से - १९१ ?
"गरीबों के उद्धारक"
पूज्य शान्तिसागरजी महराज के दीक्षा लेने के उपरांत गाँव में पुराने लोगों में जब चर्चा चलती थी, तब लोग यही कहते थे कि हमारे गाँव का रत्न चला गया। गरीब लोग आँखों से आँसू बहाकर यह कहकर रोते थे कि हमारा जीवन दाता चला गया।
शूद्र लोग उनके वियोग से अधिक दुखी हुए थे, क्योंकि उन दीनों के लिए वह करुणासागर थे। वे कहते थे कि अभी तक हममें जो कुछ अच्छी बातें हैं, उसका कारण वह स्वामीजी ही हैं। हमने कभ
? अमृत माँ जिनवाणी से - १९० ?
"शांत प्रकृति"
सातगौड़ा बाल्यकाल से ही शांत प्रकृति के रहे हैं। खेल में तथा अन्य बातों में इनका प्रथम स्थान था। ये किसी से झगडते नहीं थे, प्रत्युत झगड़ने वालों को प्रेम से समझाते थे।
वे बाल मंडली में बैठकर सबको यह बताते थे कि बुरा काम कभी नहीं करना चाहिए। वे नदी में तैरना जानते थे। उनका शारीरिक बल आश्चर्य-प्रद था।
उनका जीवन बड़ा पवित्र और निरुपद्रवी रहा है। वे कभी भी किसी को कष्ट नहीं देते थे। वे क
? अमृत माँ जिनवाणी से - १८९ ?
"शुद्रो पर प्रेमभाव"
सातगौड़ा की अस्पृश्य शूद्रों पर बड़ी दया रहती थी। हमारे कुएँ का पानी जब खेत में सीचा जाता था, तब उसमें से शूद्र लोग यदि पानी लेते थे, तब हम उनको धमकाते थे और पानी लेने से रोकते थे, किन्तु सातगौड़ा को उन पर बड़ी दया आती थी। वे हमें समझाते थे और उन गरीबों को पानी लेने देते थे।
खेतों के काम में उनके समान कुशल आदमी हमने दूर-दूर तक नहीं देखा। खेत में गन्ने बोते समय उनका हल पूर्णतः सीधी ल
? अमृत माँ जिनवाणी से - १८८ ?
"इन्होंने मिथ्यात्व का त्याग कराया"
यहाँ पटिलों का प्रभाव सदा रहा है, किन्तु भेद नीति के कारण ब्राह्मणों ने अपना विशेष स्थान बनाया है। लोग मिथ्यादेवों की आराधना करते थे। यहाँ के मारुति के मंदिर जाते थे। लिंगायतों तथा ब्राह्मणों के धर्म गुरुओं की भक्ति-पूजा करते थे। उनका उपदेश सुना करते थे। उनको भेट चढ़ाया करते थे।
इस प्रकार गाढ मिथ्या अंधकार में निमग्न लोगों को सत्पथ में लगाने का समर्थ किसमें था? महराज के उज्ज्वल तथा प
? अमृत माँ जिनवाणी से - १८७ ?
"दयासागर"
सातगौड़ा का दयामय जीवन प्रत्येक के देखने में आता था। दीन-दुखी, पशु-पक्षी आदि पर उनकी करुणा की धारा बहती थी। जहाँ-जहाँ देवी आदि के आगे हजारों बकरे, भैंसे आदि मारे जाते थे, वहाँ अपने प्रभावशाली उपदेश द्वारा जीव बध को ये बंद कराते थे।
इससे लोग इनको "अहिंसावीर" कहते थे। ये दया मूर्ति के साथ ही साथ प्रेम मूर्ति भी थे। इस कारण ये सर्प आदि भीषण जीवों पर भी प्रेम करते थे। उनसे तनिक भी नहीं डरते थे।
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आज कार्तिक शुक्ला द्वादशी की शुभ तिथी को १८ वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ अरहनाथ भगवान का ज्ञान कल्याणक पर्व है।
? अमृत माँ जिनवाणी से - १८६ ?
"असाधारण धैर्य"
सातगौड़ा को दुख तथा सुख में समान वृत्ति वाला देखा है। माता पिता की मृत्यु होने पर, हमने उनमें साधारण लोगों की भाँति शोकाकुलता नहीं देखी। उस समय उनके भावों में वैराग्य की वृद्धि दिखाई पड़ती थी।
उनका धैर्य असाधारण था। माता-पिता का समाधिमरण होने से उन्हें संतोष हुआ था। उनके