आचार्य योगिन्दु कर्म के विषय में स्पष्ट करते हैं किन्तु वे उन कर्मों की नाम सहित व्याख्या नहीं करते, क्योंकि उनके अपने जैन सम्प्रदाय में प्रत्येक धर्म ग्रंथ में इसका उल्लेख होने से प्रायः सभी इससे परिचित हैं। वे कर्म के विषय में कहते हैं कि कर्म से आच्छादित हुआ जीव अपने मूल आत्म स्वभाव को प्राप्त नहीं करता है। वैसे ये आठ कर्म हैं - ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय। ज्ञान का आवरण होने से प्राणी ज्ञान के सही स्वरूप से अवगत नहीं होता, दर्शन का आवरण होने से वस्तु के स
भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान संस्कृति है। भारत देश में विद्यमान सभी धर्मों के धर्माचार्यों ने सभी जीवों का प्राण कर्म को ही अंगीकार किया है। गीता, महाभारत, रामायण, समयसार, आचारंग बाइबिल, कुरान कोई भी ग्रंथ किसी भी धर्माचार्य द्वारा विरचित हो सभी कर्म को प्रमुखता देते हैं। कर्म को प्रमुखता देकर उसको अंगीकार करनेवाला कोई भी प्राणी धर्मान्धता को मान्यता नहीं देता। वह किसी भी भी झूठे चमत्कार में विश्वास नहीं करता, अपितु धर्मान्धों के चमत्कार में भी वह सच्चाई को ढूंढ निकालता है। किसी भी धर्माचार्य
कर्म सिद्धान्त जैन धर्म एवं दर्शन की रीढ़ है। आचार्य योगीन्दु परमआत्मा का स्वरूप, आत्मा का लक्षण आदि को स्पष्ट करने के बाद आत्मा व कर्म में परस्पर सम्बन्ध का कथन परमात्मप्रकाश में 59.66 दोहों में करते हैं। वे कहते हैं कि जीवों का कर्म अनादिकाल से चला आ रहा है, इन दोनों का ही आदि नहीं है। यह जीव कर्म के कारण ही अनेक रूपान्तरों को प्राप्त होता है। आत्मा के साथ कर्म के सम्बन्ध को हम एक-एक दोहे के माध्यम से देखने और समझने का प्रयास करते हैं -
59. जीवहँ कम्मु अणाइ जिय जणियउ कम्मु ण तेण।
आगे के दो दोहे में आचार्य आत्मा के लक्षण को स्पष्ट करते हैं कि आत्मा द्रव्य है जो गुण और पर्याय से युक्त है। दर्शन और ज्ञान उसके गुण हैं तथा भाव व शरीर सहित चारों गति में जन्म लेना उसकी पर्याय है जो अनुक्रम से विद्यमान है। गुण सदैव आत्मा के साथ रहते हैं जबकि पर्याय परिवर्तनशील है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे -
57. तं परियाणहि दव्वु तुहुँ जं गुण-पज्जय-जुत्तु।
सह-भुव जाणहि ताहँ गुण कम-भुव पज्जउ वुत्तु।। 57।।
अर्थ - जो कोई गुण और पर्याय सहित है उसको द्रव्य जान, (आ
आचार्य योगिन्दु भट्टप्रभाकर की आत्म विषयक शंका का समाधान करने के बाद आत्मा के विषय में और स्पष्ट करते हुए कहते है कि आत्मा अनादि और अनित्य है। द्रव्य स्वभाव से यह नित्य है तथा पर्याय स्वभाव से यह नाशवान है। देखिये परमात्मप्रकाश के आगे का दोहा क्रमशः -
56. अप्पा जणियउ केण ण वि अप्पे ँ जणिउ ण कोइ।
दव्व-सहावे ँ णिच्चु मुणि पज्जउ विणसइ होइ।। 56।।
अर्थ - आत्मा किसी के द्वारा उत्पन्न नहीं की गई, आत्मा के द्वारा कोई उत्पन्न नहीं किया गया, द्रव्य के स्वभाव से (आत्मा ) नित्य है, क
आचार्य योगिन्दु भट्टप्रभाकर की शंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि आत्मा अनेकान्त दृष्टि से तुम्हारे अनुसार बताये गये स्वरूपों में से सभी स्वरूपों से युक्त है। तीन स्वरूपों को बता चुकने के बाद आचार्य कहते हैं कि आत्मा सभी प्रकार के कर्मों एवं सभी प्रकार के दोषों से रहित होने के कारण शून्य है, इसी कारण पूर्णरूप से शुद्ध भी है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
55 अट्ठ वि कम्मइँ बहुविहइँ णवणव दोस वि जेण ।
सुद्धहँ एक्कुवि अत्थि णवि सुण्णु वि वुच्चइ तेण।। 55।।
अर्थ
आचार्य योगिन्दु भट्टप्रभाकर की शंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि आत्मा अनेकान्त दृष्टि से तुम्हारे अनुसार बताये गये स्वरूपों में से सभी स्वरूपों से युक्त है। तीन स्वरूपों को बता चुकने के बाद आचार्य कहते हैं कि आत्मा सभी प्रकार के कर्मों एवं सभी प्रकार के दोषों से रहित होने के कारण शून्य है, इसी कारण पूर्णरूप से शुद्ध भी है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
55 अट्ठ वि कम्मइँ बहुविहइँ णवणव दोस वि जेण ।
सुद्धहँ एक्कुवि अत्थि णवि सुण्णु वि वुच्चइ तेण।। 55।।
अर्थ
आत्मा का सर्वव्यापक व जड़ स्वरूप का कथन करने के बाद आचार्य कहते हैं कि आत्मा का स्वरूप चरमशरीर प्रमाण भी है क्योंकि निमित्त से रहित हुए शुद्ध जीव का न क्षय होता है और न वृद्धि होती है। देखिये इस कथन से सम्बन्धित दोहा -
54. कारण - विरहिउ सुद्ध-जिउ वड्ढइ खिरइ ण जेण।
चरम-सरीर-पमाणु जिउ जिणवर बोल्लहिं तेण।। 54।।
अर्थ - निमित्त से रहित शुद्ध जीव जिस (निमित्त) के कारण से बढता-खिरता नहीं है, उस (निमित्त) के कारण जिनेन्द्रदेव आत्मा को सम्पूर्ण (अन्तिम) शरीर प्रमाण कहते हैं।
शब्द
आत्मा का सर्वव्यापक व जड़ स्वरूप का कथन करने के बाद आचार्य कहते हैं कि आत्मा का स्वरूप चरमशरीर प्रमाण भी है क्योंकि निमित्त से रहित हुए शुद्ध जीव का न क्षय होता है और न वृद्धि होती है। देखिये इस कथन से सम्बन्धित दोहा -
54. कारण - विरहिउ सुद्ध-जिउ वड्ढइ खिरइ ण जेण।
चरम-सरीर-पमाणु जिउ जिणवर बोल्लहिं तेण।। 54।।
अर्थ - निमित्त से रहित शुद्ध जीव जिस (निमित्त) के कारण से बढता-खिरता नहीं है, उस (निमित्त) के कारण जिनेन्द्रदेव आत्मा को सम्पूर्ण (अन्तिम) शरीर प्रमाण कहते हैं।
शब्द
भट्टप्रभाकर के द्वारा पूछे गये प्रश्न के उत्तर में आचार्य कहते हैं कि स्वबोध में पूर्णरूप से स्थित जीवों में इन्द्रिय ज्ञान की अपेक्षा से ज्ञान नहीं होता । अतः इन्द्रिय ज्ञान की अपेक्षा से आत्मा जड़ है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
53. जे णिय-बोह -परिट्ठियहँ जीवहँ तुट्टइ णाणु।
इंदिय-जणियउ जोइया तिं जिउ जडु वि वियाणु।। 53।।
अर्थ - स्वबोध में सम्पूर्णरूप से स्थित हुए जीवों का जो इन्द्रियों से उत्पन्न किया ज्ञान खण्डित होता है, उस (इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान क
भट्टप्रभाकर के द्वारा यह पूछा जाने पर कि कुछ लोग आत्मा को सर्वव्यापक कहते हैं इसमें आपका क्या विचार है ? तब आचार्य योगिन्दु कहते हैं जिन लोगों ने आत्मा को सर्वव्यापक बताया है वह सही है। कर्म से रहित हुई केवलज्ञानरूप आत्मा में समस्त लोक व अलोक स्पष्ट झलकता है, इसलिए आत्मा को सर्वव्यापक कहा गया है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
52. अप्पा कम्म - विवज्जियउ केवल-णाणे ँ जेण ।
लोयालोउ वि मुणइ जिय सव्वगु वुच्चइ तेण ।। 52।।
अर्थ - कर्मरहित आत्मा जिस केवलज्ञान से लोक और अलोक कोे जानत
भट्टप्रभाकर की आत्म विषयक शंका को सुनकर आचार्य योगिन्दु उसकी शंका के अनुरूप ही क्रमशः उसकी शंका का समाधान करते है। यह समाधान भट्टप्रभाकर के समान हम सबके लिए भी अत्यन्त उपयोगी एवं आवश्यक है। आगे के 5 दोहों में आत्मा के स्वरूप को बताया गया है। इस दोहे में वे कहते हैं कि जो जो गुण तुमने आत्मा के विषय में सबकी दृष्टि के अनुसार देखे वे सभी गुण आत्मा में हैं। आगे फिर उसका खुलासा करेंगे कि वह प्रत्येक गुण आत्मा में किस प्रकार है। चलिए देखते है यह दोहा -
51. अप्पा जोइय सव्व-गउ अप्पा जडु
अभी हमने आत्मा के सर्वोत्कृष्ट स्वरूप अर्थात आत्मा की परम अवस्था के स्वरूप के विषय में विस्तार से समझा। हमें परमात्मप्रकाश के अध्ययन के साथ यह भी देखना चाहिए कि आचार्य योगिन्दु मानव मन के विशेषज्ञ थे। इसी कारण उन्होंने सर्व प्रथम हमारे समक्ष आत्मा का उत्कृट स्वरूप को रक्खा ताकि हम उससे आगे बताये आत्मा से सम्बन्धित सम्पूर्ण विवेचन से भलीभाँति अवगत हो सके।परमात्मा के स्वरूप से पूर्ण अवगत होने पर भट्टप्रभाकर आचार्य योगिन्दु से प्रश्न करते हैं कि आखिर आत्मा है क्या ? यह प्रश्न भट्टप्रभाकर द्वारा जि
अभी हमने आत्मा के सर्वोत्कृष्ट स्वरूप अर्थात आत्मा की परम अवस्था के स्वरूप के विषय में विस्तार से समझा। हमें परमात्मप्रकाश के अध्ययन के साथ यह भी देखना चाहिए कि आचार्य योगिन्दु मानव मन के विशेषज्ञ थे। इसी कारण उन्होंने सर्व प्रथम हमारे समक्ष आत्मा का उत्कृट स्वरूप को रक्खा ताकि हम उससे आगे बताये आत्मा से सम्बन्धित सम्पूर्ण विवेचन से भलीभाँति अवगत हो सके।परमात्मा के स्वरूप से पूर्ण अवगत होने पर भट्टप्रभाकर आचार्य योगिन्दु से प्रश्न करते हैं कि आखिर आत्मा है क्या ? यह प्रश्न भट्टप्रभाकर द्वारा जि
आचार्य योगीन्द्र कहते हैं मात्र कर्म ही जीव के सुख-दुःख का कारण है। कर्म बंधन से मुक्त हुआ जीव ही सुख दुःख से परे शान्त अवस्था को प्राप्त हुआ परम आत्मा होता है। परम आत्मा से न कुछ उत्पन्न होता है और ना ही उसका कुछ हरण किया जाता है। आत्मा कर्मरूप होकर भी कर्मों से बंधी हुई नहीं होती। देखिये इस कथन को परमात्मप्रकाश के दो दोहे में इस प्रकार बताया गया है -
48. कम्मइं जासु जणंतहि ँ वि णिउ णिउ कज्जु सया वि ।
किं पि ण जणियउ हरिउ णवि सो परमप्पउ भावि ।।
अर्थ - निश्चयरूप से कर्म ह
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि जिस प्रकार मंडप के आश्रय के अभाव में बेल मुडकर स्थित हो जाती है उसी प्रकार मुक्ति को प्राप्त हुआ जीव ज्ञान-ज्ञेय के आलंबन के अभाव में प्रतिबिम्बित हुआ लोकाकाश में स्थिर हो जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
47. णेयाभावे विल्लि जिम थक्कइ णाणु वलेवि ।
मुक्कहँ जसु पय बिंबियउ परम-सहाउ भणेवि ।।
अर्थ - बेल की तरह मुक्ति को प्राप्त हुए जिस जीव का ज्ञान- ज्ञेय के (आलम्बन के) अभाव में लौटकर (तथा) परम स्वभाव का प्रतिपादन करके (इस ल
आचार्य योगीन्दु कहते है कि जो सभी प्रकार के बन्ध और संसार से रहित है, वह ही परम आत्मा है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
46. जसु परमत्थे ँ बंधु णवि जोइय ण वि संसारु ।
सो परमप्पउ जाणि तुहुँ मणि मिल्लिवि ववहारु ।।
अर्थ - हे योगी! वास्तविकरूप में जिसके न ही (संसार के कारण, प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप) बन्ध है, न ही (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप) संसार है, वह परम-आत्मा है। तुम मन से (सब लौकिक व्यवहार) विवाद त्यागकर (वीतरागता में स्थित होकर)
आचार्य योगिन्दु परमात्मप्रकाश में बताते हैं कि आत्मा और शरीर का परष्पर अटूट सम्बन्ध है। दोनों में परष्पर इतना अटूट सम्बन्ध है कि एक दूसरे के अभाव में दोनों का ही अस्तित्व नहीं है। इसके बाद वे कहते हैं कि फिर भी आत्मा का देह से विशिष्ट महत्व है। वे इस बात को स्पष्ट करने हेतु कहते हैं कि जिस आत्मा के होने तक ही सारे इन्द्रिय व विषय सुखों को जाना जाता है, अनुभव किया जाता है। जबकि मात्र इन्द्रियों के विषयों द्वारा आत्मा का अनुभव नहीं किया जाता है। इसी बात को दोहे में इस प्रकार कहा गया है - 45. ज
आचार्य योगिन्दु परमात्मप्रकाश के 44 वें दोहे में कहते हैं कि आत्मा वह है जिसे कोई भी जीव नकार नहीं सकता। आत्मा की अनुभूति चाहे बिना निर्मल मन के संभव नहीं किन्तु उसके अस्तित्व की बात को साधारण मनुष्य भी आचार्य योगिन्दु के इस दोहे में कथित शब्दों से आसानी से समझ सकता है। आचार्य आत्मा के अस्तित्व के साथ शरीर के साथ आत्मा का दृढ़ सम्बन्ध बताते हुए कहते हैं कि यह इन्द्रिय रूपी गाँव अर्थात हमारा शरीर जब तक ही है तब तक इसका सम्बन्ध आत्मा से जुड़ा हुआ है। लेकिन जैसे ही इसका आत्मा से सम्बन्ध टूट जाता है,
परमात्मप्रकाश के दोहे 42 में बताया गया है कि परम समाधि का अनुभव सांसारिक भोगों के प्रति आसक्ति के त्याग से ही संभव है। भोगों के साथ परम आत्मा की अनुभूति की बात करना चट्टान पर कमल उगाना तथा पानी से मक्खन निकालने के समान है। सभी महापुरुषों ने परमात्मा की अनुभूति भोगों से विरक्त होकर परमसमाधि व तप करके ही की है। 42. देहि वसंतु वि हरि-हर वि जं अज्ज वि ण मुणंति । परम-समाहि-तवेण विणु सो परमप्पु भणंति ।। अर्थ - हरि, हर, (अरिहन्त जैसे महापुरुष) भी देह में बसता हुआ भी जिस (आत्मा) को प
परमात्मप्रकाश के क्रमशः आगे के दोहे में आत्मा के ज्ञान गुण की बहुत रोचक अभिव्यक्ति हुई है। इसमें बताया गया है कि आत्मा में ज्ञान गुण होने पर ही आत्मा के ज्ञान में संसार झलकता है, तथा इस ज्ञान गुण के कारण ही वह अपने आपको संसार के भीतर रहता अनुभव करता है। जब वह इस ज्ञान गुण के कारण कर्म बंधन से रहित हो संसार में बसता हुआ भी संसाररूप नहीं होता तब वह ही परम आत्मा होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा- 41 जसु अब्भंतरि जगु वसइ जग-अब्भंतरि जो जि । जगि जि वसंतु वि जगु जि ण वि मुणि परमप्पउ
परमात्मप्रकाश के निम्न दोहे में आचार्य ने समझाया है कि आत्मा के दोनों स्वरूप हैं। जब आत्मा कर्ममय होती है तो वह संसाररूप परिणत होती है और जब वही आत्मा कर्म रहित हो जाती है तो वही परम आत्मा बन जाती है। देखिये इस से सम्बन्धित परमात्मप्रकाश का अगला दोहा- 40. जो जिउ हेउ लहेवि विहि जगु बहु-विहउ जणेइ। लिंगत्तय-परिमंडियउ सो परमप्पु हवेइ।। अर्थ . जोे आत्मा (कर्मरूप) कारण को प्राप्त करके तीनों लिङ्गों से सुशोभित अनेक प्रकार के संसार को उत्पन्न करता है, वह (ही) (मूलरूप से) परम- आत्मा है।
परमात्मप्रकाश के अगले दोहे 39 में ध्यान, ध्येय व ध्याता की समग्रता में ही परमआत्मा की प्राप्ति का कथन किया गया है। यहाँ योगियों के समूह को ध्याता, ध्यान के योग्य ज्ञानमय आत्मा तथा परमशान्ति की प्राप्ति को ध्येय बताया गया है। इन तीनों के एकता ही परमआत्मा की प्राप्ति का साधन है। 39. जोइय-विंदहि ँ णाणमउ जो झाइज्जइ झेउ । मोक्खहँ कारणि अणवरउ सो परमप्पउ देउ ।। अर्थ - योगियों के समूह द्वारा परम शान्ति के प्रयोजन से जो ज्ञानमय ध्यान के योग्य(आत्मा) निरन्तर ध्यान किया जाता है, वह ही दिव्य परम- आत
परमात्मप्रकाश के अगले दोहे में कहा गया है कि जिस प्रकार अनन्त आकाश में रात्रि में मात्र एक चन्द्रमा से समस्त संसार प्रकाशित होता है उसी प्रकार समस्त लोक में जिस-जिस जीव के ज्ञान में समस्त लोक प्रतिबिम्बित होता है ही अनादि(शाश्वत) परमात्मा है। ज्ञान व शाश्वत स्वरूप से चन्द्रमा और परमआत्मा का यहाँ साम्य बताया गया है। 38. गयणि अणंति वि एक्क उडु जेहउ भुयणु विहाइ। मुक्कहँ जसु पए बिंबियउ सो परमप्पु अणाइ।। अर्थ -अनन्त आकाश में एक चन्द्रमा के सदृश जिस प्रत्येक मुक्त जीव में प्रतिबिम्बित किया
हम पूर्व में भी इस बात की चर्चा कर चुके हैं कि अदृश्य वस्तु को बोधगम्य बनाने हेतु उसका बार-बार कथन करना आवश्यक है। यहाँ आगे के दोहे में परम आत्मा से सम्बन्धित पूर्व कथन को ही पुष्ट किया गया है। 37. जो परमत्थे ँ णिक्कलु वि कम्म-विभिण्णउ जो जि । मूढा सयलु भणंति फुडु मुणि परमप्पउ सो जि ।। अर्थ - जो वास्तविकरूप से शरीर रहित है और निश्चय ही कर्मों से जुदा है, वह ही परम- आत्मा है, (किन्तु) मूर्ख (उसको) शरीरस्वरूप ही कहते हैं, (तुम) (इस बात को) स्पष्टरूप से समझो। शब्दार्थ - जो-जो, परमत्थे ँ-वास्