आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति पलक झपकने के समय से आधा समय भी परमात्मा से प्रेम कर ले तो उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। आचार्य योगिन्दु के अनुसार परमात्मा से प्रेम करना आसान नहीं है उसके लिए अपने मन को निर्मल बनाना पड़ता है, राग-द्वेष से परे होना पड़ता है, अशुभ व शुभ भावों से परे शुद्ध भाव में स्थित होना पडता है। स्वतः यही स्थिति ही पापों से परे हो जाती है एवं अपनी आत्मा ही परम आत्मा बन जाती है। भोगों के विषम जीवन से हटकर व्यक्ति सरल सम जीवन में स्थित हो जाता है। समभाव में स्थित मन
आचार्य योगीन्दु हमें समझाते हैं कि आत्म द्रव्य के अतिरिक्त वे पर द्रव्य कौन-कौन से हैं जिनमें हमें मति नहीं करनी चाहिए। आत्म पदार्थ से पृथक् अचेतन पदार्थ हैं - पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, (इन) पाँचों को पर द्रव्य जानो। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
113 जं णियदव्वहँ भिण्णु जडु तं पर-दव्वु वियाणि।
पुग्गलु धम्माधम्मु णहु कालु वि पंचमु जाणि।।
अर्थ -जो आत्म पदार्थ से पृथक् अचेतन (पदार्थ) हैं, उनको पर द्रव्य जानो। पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, (इन) पाचैं को पर द
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि व्यक्ति को सदैव अपनी आत्मा में ही अपनी मति को लगाना चाहिए। मनुष्य की यह आत्म निष्ठ बुद्धि ही उसके सुख का कारण है। जो अपनी बुद्धि को आत्मा में स्थित रखता है, वह उत्कृष्ट जन कहा जाता है। बुद्धि और आत्मा का परोष्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है, क्योंकि जिसमें जीव की बुद्धि होती है उसमें ही नियम से उसकी गति होती है। यही कारण है कि जिस का निदान कर व्यक्ति मरण को प्राप्त होता है मरकर जिसका निदान कर वह मरा है उस ही गति में वह पुनः जन्म लेता है। इसीलिए आचार्य योगीन्दु सदैव पर वस्तु में
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि समस्त प्राणी जगत के लिए अनुकरणीय एक ही परमसत्ता है, वह है परम आत्मा। नित्य, निरंजन, ज्ञानमय एवं परमआनन्द स्वभाव इस परमआत्मा के विषय में हम पूर्व में विस्तार से विवेचन कर चुके हैं। सभी ज्ञानी एवं भव्य आत्माएँ इस ही निरंजन परमआत्म स्वभाव को प्राप्त होती है। हरि, हर, मुनिवर सभी अपने निर्मल चित्त में इसी निरंजन स्वरूप का ध्यान करते हैं। इस प्रकार यह परम सत्ता एक ही है और इस परमआत्म तत्त्व की प्राप्ति करनेवाले सभी भव्यजनों का निर्मल स्वभाव भी समान ही है। आचार्य योगीन्दु की
आचार्य योगीन्दु ज्ञानमय आत्मा के विषय में विस्तृतरूप से कथन करने के बाद अन्त में कहते है कि ज्ञानमय आत्मा ही परमात्मा को देखने, जानने और प्राप्त करने का साधन है। दंखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
109. जोइज्जइ ति बंभु परु जाणिज्जइ तिं सोइ।
बंभु मुणेविणु जेण लहु गम्मिज्जइ परलोइ।।
अर्थ - उस (ज्ञानी आत्मा) से (ही) (वह) श्रेष्ठ परमात्मा देखा जाता है, (और) उस (ज्ञानी आत्मा) से ही वह (श्रेष्ठ परमात्मा) जाना जाता है, जिससे परमात्मा को जानकर (उसके द्वारा) शीध्र श्रेष्ठ लोक में जाया ज
आचार्य योगीन्दु के अनुसार अपनी आत्मा को श्रेष्ठ तभी बनाया जा सकता है जब आत्मा ज्ञानवान हो और उस ज्ञानवान आत्मा से ज्ञानमय आत्मा को पहिचान लेता हो। अर्थात जब ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता का भेद समाप्त होकर एकरूपता हो जाती है तब ही परम आत्मा की प्राप्ति होती है। देखिये इससे सम्बधित आगे का दोहा -
108. णाणिय णाणिउ णाणिएण णाणिउँ जा ण मुणेहि।
ता अण्णाणि णाणमउँ किं पर बंभु लहेइ।। 108।।
अर्थ - हे ज्ञानी (भट्टप्रभाकर)! ज्ञानवान(आत्मा) ज्ञानी (आत्मा) से ज्ञानमय (आत्मा) को जब तक नहीं जान
आचार्य योगीन्दु कहते है कि आत्मा को ज्ञान से ही जाना जा सकता है इन्द्रियों आदि से नहीं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
107. अप्पा णाणहँ गम्मु पर णाणु वियाणइ जेण।
तिण्णि वि मिल्लिवि जाणि तुहुँ अप्पा णाणे तेण।।
अर्थ - आत्मा ज्ञान के ही जानने योग्य है, क्योंकि मात्र ज्ञान (ही) (आत्मा को) जानता है, (इसलिए) उन सबको ही छोड़कर तू उस ज्ञान से आत्मा को जान।
शब्दार्थ - अप्पा-आत्मा, णाणहँ-ज्ञान के, गम्मु-जानने योग्य, पर-मात्र, णाणु-ज्ञान, वियाणइ-जानता है, जेण-क्योंकि, तिण्णि-उन स
आचार्य योगीन्दु कहते है कि आत्मा को ज्ञान से ही जाना जा सकता है इन्द्रियों आदि से नहीं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
107. अप्पा णाणहँ गम्मु पर णाणु वियाणइ जेण।
तिण्णि वि मिल्लिवि जाणि तुहुँ अप्पा णाणे तेण।।
अर्थ - आत्मा ज्ञान के ही जानने योग्य है, क्योंकि मात्र ज्ञान (ही) (आत्मा को) जानता है, (इसलिए) उन सबको ही छोड़कर तू उस ज्ञान से आत्मा को जान।
शब्दार्थ - अप्पा-आत्मा, णाणहँ-ज्ञान के, गम्मु-जानने योग्य, पर-मात्र, णाणु-ज्ञान, वियाणइ-जानता है, जेण-क्योंकि, तिण्णि-उन स
आचार्य योगीन्दु आत्मा को ही ज्ञान बताने के बाद स्पष्ट घोषणा करते हैं कि आत्मा के अतिरिक्त सभी ज्ञान व्यर्थ हैं, क्योंकि ज्ञान की सार्थकता आत्मा को जानने, समझने और उसे अनुभव करने में है। वैसे भी प्रत्येक श्रेष्ठ जीव का अपना चरम उद्देश्य सभी जीवों को सुख और शान्ति प्रदान करना हैए तथा सभी जीवों का अस्तित्व आत्मा के साथ ही है। आत्मा के बिना जीव का कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिए आचार्य कहते हैं कि आत्मा की उपेक्षा करते हुओं के सभी ज्ञान व्यर्थ हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
106. अप्पहँ जे वि
आचार्य योगीन्दु आत्मा को ही ज्ञान बताने के बाद स्पष्ट घोषणा करते हैं कि आत्मा के अतिरिक्त सभी ज्ञान व्यर्थ हैं, क्योंकि ज्ञान की सार्थकता आत्मा को जानने, समझने और उसे अनुभव करने में है। वैसे भी प्रत्येक श्रेष्ठ जीव का अपना चरम उद्देश्य सभी जीवों को सुख और शान्ति प्रदान करना हैए तथा सभी जीवों का अस्तित्व आत्मा के साथ ही है। आत्मा के बिना जीव का कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिए आचार्य कहते हैं कि आत्मा की उपेक्षा करते हुओं के सभी ज्ञान व्यर्थ हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
106. अप्पहँ जे वि
भट्टप्रभाकर के द्वारा आत्मा को जाननेवाले ज्ञान के विषय में पूछा जाने पर आगे योगीन्दु आचार्य कहते हैं कि आत्मा को ही ज्ञान जान। आत्मा स्वयं ज्ञानवान है वह अपने ज्ञान से स्वयं को जानती है। इसलिए तू आत्मा को ही ज्ञान समझ। इससे सम्बन्धित देखिये आगे का दोहा जिसमें इसको अच्छी तरह से स्पष्ट किया गया है।
105. अप्पा णाणु मुुणेहि तुहुँ जो जाणइ अप्पाणु ।
जीव-पएसहि ँ तित्तिडउ णाणे ँ गयण-पवाणु।।
अर्थ - तू आत्मा को ही ज्ञान जान, जो (ज्ञानरूप) आत्मा अपने को अपने ज्ञान से जानती है कि
भट्टप्रभाकर गुरुवर आचार्य योगिन्दु के मुख से आत्मा के विषय में विस्तार से जानकर पुनः प्रश्न करता है कि हे स्वामी आत्मा के विषय में जानकर अब मुझे संसार की बातों से कोई प्रयोजन नहीं रहा। अब आप मुझे आत्मा को जाननेवाला ज्ञान और समझाइय, जिससे मैं अपनी आत्मा को जान सकूँे। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
104. णाणु पयासहि परमु महु किं अण्णे ँ बहुएण।
जेण णियप्पा जाणियइ सामिय एक्क-खणेण।।
अर्थ - हे स्वामी! अन्य बहुत (बात) से क्या ? (आप) मेरे लिए (वह) परम ज्ञान प्रकाशित करें, जिस
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि अपनी स्वयं की आत्मा को भलीभाँति जानना और समझना ही श्रेष्ठ ज्ञान है। आत्मा सबकी समान है इसीलिए सुख सभी को प्रिय व दुःख सभी को अप्रिय लगते हैं। आत्मा अनुभूति के स्तर पर सबकी समान है। अतः जिसमें अपनी आत्मा को अनुभूत करने का ज्ञान विकसित हो जाता है वह पर आत्मा के विषय में भी जानने लग जाता है। उसे पर के दुःख भी अपने ही दुःख लगने लगते हैं जिससे उसका जीवन स्वतः अहिंसामय होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
103 अप्पु वि परु वि वियाणइ जे ँ अप्पे ँ मुणिएण।
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि चारों गतियों में मनुष्य जीवन ही महत्वपूर्ण है क्योंकि मनुष्य जीवन में ही अपनी आत्मा को निर्मल बनाने का विवेक जाग्रत हो सकता है। मनुष्य गति को प्राप्तकर मनुष्य का उद्देश्य अपनी आत्मा को निर्मल बनाना ही होना चाहिए। इस को उद्देश्य मानलेने पर व्यक्ति स्वयं का गुरु स्वयं हो जाता है। स्वतः वह अपनी राह बनाना सीख लेता है।उसकी प्रत्येक क्रिया सार्थक होती है। एक दिन उसकी आत्मा पूर्ण निर्मल हो जाने से वही परमआत्मा को प्राप्त करलेता है जिससे उसकी आत्मा में लोक और अलोक प्रतिबिम्बि
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि वस्तु का स्वभाव ही उसका मूल धर्म है। उस ही क्रम में आत्मा का स्वभाव प्रकाशमान है। जो स्वयं भी प्रकाशित है और दूसरे को भी अपने प्रकाश से प्रकाशित करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
101. अप्पु पयासइ अप्पु परु जिम अंबरि रवि-राउ।
जोइय एत्थु म भंति करि एहउ वत्थु- सहाउ।।
अर्थ -आत्मा स्वयं को (तथा) पर को प्रकाशित करता है, जिस प्रकार आकाश में सूर्य का प्रकाश (स्वयं को तथा पर को प्रकाशित करता है)। हे योगी! (तू) इसमें सन्देह मत कर,ऐसा ही वस्तु
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि आत्मस्वभाव में स्थित हुए व्यक्ति की यह विशेषता होती है कि उसको स्वयं में ही समस्त लोक और अलोक दिखायी पड़ता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
100. अप्प-सहावि परिट्ठियह एहउ होइ विसेसु।
दीसइ अप्प-सहावि लहु लोयालोउ असेसु।।
अर्थ - आत्मा के स्वभाव में सम्पूर्णरूप से स्थित हुए (प्राणियों) की ऐसी विशेषता होती है (कि) (उनको) आत्मा के स्वभाव में समस्त लोक और अलोक शीघ्र दिखाई पड़ता है।
शब्दार्थ - अप्प-सहावि- आत्मा के स्वभाव में, परिट्ठियहँ- सम्प
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जीव बाल्यावस्था को पारकर युवावस्था में पहुँचता है, उसकी समझ विकसित होती है, तब से उसका प्रयास आत्मा को निर्मल बनाने की ओर ही होना चाहिए। यदि आत्मा निर्मल है तो उसकी निर्मलता से उसके द्वारा समस्त जग जाना हुआ होता है। उसके निर्मल स्वभाव में लोक प्रतिबिम्बित किया हुआ विद्यमान रहता है। इसके विपरीत यदि आत्मा निर्मल नहीं है तो उसके द्वारा शास्त्रों, पुराणों का अध्ययन किया जाना तथा घोर तपश्चरण किया जाना भी व्यर्थ है, क्योंकि अध्ययन व तपश्चरण भी आत्मा को निर्मल बनाने हेतु ही
बन्धुओं! मुझे कईं बार ऐसा लगता है कि कहीं आप आत्मा ही आत्मा की बात सुनते सुनते ऊब तो नहीं गये हो। लेकिन आगे चलकर आप आत्मा के इस सर्वांगीण विवेचन के उपरान्त ही आत्मशान्ति का सही अर्थ समझ सकेंगे। आचार्य योगिन्दु के अनुसार जब तक आत्मा से भलीभाँति परिचित नहीं हुआ जा सकता, तब तक आत्मशान्ति का सही मायने में अर्थ भी नहीं समझा जा सकता। आत्मा से सम्बन्धित चर्चा कुछ ही शेष है, फिर आत्मशान्ति हेतु मोक्ष अधिकार प्रारंभ होनेवाला है। आत्माधिकार को समझने के बाद मोक्ष अधिकार हमारे लिए सहज बोधगम्य हो सकेगा।
आत्मा ही सब कुछ है इसी बात को आगे बढाते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि आत्मा सब कुछ तब ही है जब उसका स्वरूप निर्मल हो। आत्मा को निर्मल बनाना ही व्यक्ति का उद्देश्य होना चाहिए। तीर्थ, गुरु, देव एवं शास्त्र का आश्रय व्यक्ति आत्मा को निर्मल बनाने के लिए ही लेता है। यदि इनका आश्रय लेकर आत्मा निर्मल हो जाती है तो उसके बाद उन सब साधनों की कोई आवश्यक्ता नहीं है, लेकिन इनका निरन्तर आश्रय लेने पर भी यदि आत्मा निर्मलता की और नहीं बढ़ सकी तो उनके लिए ये सभी आश्रय व्यर्थ हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दो
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि आत्मा के साथ ही सब उपयोगी है, आत्मा के अभाव मे सब निरर्थक है। वे आगे के दोहे में आत्मा की महत्ता को बताते हुए कहते हैं कि आत्मा को छोड़कर न कोई दर्शन है, न ज्ञान है, न, चारित्र है।
94. अण्णु जि दंसणु अत्थि ण वि अण्णु जि अत्थि ण णाणु।
अण्णु जि चरणु ण अत्थि जिय मेल्लिवि अप्पा जाणु।।
अर्थ -हे प्राणी! आत्मा को छोड़कर निश्चय ही (आत्मा) से भिन्न (कोई) दर्शन नहीं है, (आत्मा) से भिन्न निश्चय ही (कोई) ज्ञान नहीं है, (तथा) (आत्मा) से भिन्न निश्चय ही (कोई)
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि आत्मा के साथ ही सब उपयोगी है, आत्मा के अभाव मे सब निरर्थक है। वे आगे के दोहे में आत्मा की महत्ता को बताते हुए कहते हैं कि आत्मा को छोड़कर न कोई दर्शन है, न ज्ञान है, न, चारित्र है।
94. अण्णु जि दंसणु अत्थि ण वि अण्णु जि अत्थि ण णाणु।
अण्णु जि चरणु ण अत्थि जिय मेल्लिवि अप्पा जाणु।।
अर्थ -हे प्राणी! आत्मा को छोड़कर निश्चय ही (आत्मा) से भिन्न (कोई) दर्शन नहीं है, (आत्मा) से भिन्न निश्चय ही (कोई) ज्ञान नहीं है, (तथा) (आत्मा) से भिन्न निश्चय ही (कोई)
आचार्य योगीन्दु आगे कहते हैं कि आत्मा का मूल स्वभाव संयम, शील, तप, दर्शन और ज्ञान है। इन मूल स्वभाव की प्राप्ति ही आत्मा की प्राप्ति का साधन है। मूल स्वभाव के नष्ट होने पर विकारी भाव आत्मा की प्राप्ति में बाधक हो जाते हैं। देखिये इससे सयम्बन्धित आगे का दोहा -
93. अप्पा संजमु सीलु तउ अप्पा दंसणु णाणु ।
अप्पा सासय- मोक्ख-पउ जाणंतउ अप्पाणु।। 93।।
अर्थ - आत्मा संयम (है), शील (है), तप (है), आत्मा दर्शन (है), ज्ञान (है), आत्मा स्वयं को जानता हुआ शाश्वत सुख का स्थान है।
शब्द
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि आत्मा का जब मूढ स्वभाव नष्ट हो जाता है और आत्मा का ज्ञान गुण विकसित होने लगता है तब व्यक्ति को समझ में आता है कि आत्मा का सम्बन्ध मात्र उसके चेतन स्वभाव से है, द्रव्यों से नहीं है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
92. पुण्णु वि पाउ वि कालु णहु धम्माधम्मु वि काउ।
एक्कु वि अप्पा होइ णवि मेल्लिवि चेयण-भाउ।।
अर्थ -आत्मा चेतन स्वभाव को छोडकर पुण्य और पाप, और काल, आकाश, धर्म, अधर्म और शरीर (इनमें से) एक भी नहीं है।
शब्दार्थ - पुण्णु-पुण्य, वि
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि आत्मा का जब मूढ स्वभाव नष्ट हो जाता है और आत्मा का ज्ञान गुण विकसित होने लगता है तब व्यक्ति को समझ में आता है कि उसकी लघुता व महानता का सम्बन्ध उसकी आत्मा से नहीं बल्कि उसके कर्मों से है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
91 अप्पा पंडिउ मुक्खु णवि णवि ईसरु णवि णीसु।
तरुणउ बूढउ बालु णवि अण्णु वि कम्म-विसेस।। 91।।
अर्थ - आत्मा बुद्धिमान (तथा) मूर्ख नहीं है, धनवान नहीं है, धनरहित (दरिद्र) नहीं है, जवान, बूढा (और) बालक नहीं है, (ये सब) (आत्मा) से
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि आत्मा का जब मूढ स्वभाव नष्ट हो जाता है और आत्मा का ज्ञान गुण विकसित होने लगता है तब व्यक्ति को समझ में आता है कि आत्मा का सम्बन्ध न छोटे से है न बड़े से। आत्मा तो मात्र दर्शन, ज्ञान और चेतना स्वरूप मात्र है। आत्मा के जाग्रत होने पर वह समझता है कि आत्मा का सम्बन्ध न मनुष्य गति से है, न देव गति से, न तिर्यंच गति से और न नरक गति से। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
90. अप्पा माणुसु देउ ण वि अप्पा तिरिउ ण होइ ।
अप्पा णारउ कहि ँ वि णवि णाणिउ जाणइ जोइ ।।