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ABC of Apbhramsa

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सीता के मन में स्थित आसक्ति का स्वरूप

यहाँ हम देखेंगे कि राग की परम्परा किस प्रकार आगे तक चलती रहती है। राम की पत्नी सीता ने संन्यास अंगीकार कर मरण कर इन्द्रपद पाया। इन्द्रपद के भव मेें राम का समागम होना जानकर पुनः राग भाव उत्पन्न हुआ। यह राग ऐसा ही है जो भव-भव तक पीछा नहीं छोड़ता और यही मनुष्य की अशान्ति का कारण है।  सीता के जीव इन्द्र के माध्यम से हम राग के स्वरूप को देखेंगे। राम ने सुव्रतनामक चारण मुनिराज के पास दीक्षा ग्रहणकर महाव्रत अंगीकार किये। बारह प्रकार का कठोर तप अंगीकार कर परीषह सहन का युक्तियों का पालन किया। छठे उपवास के

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राम की लक्ष्मण के प्रति आसक्ति का कथन

अज्ञान जनित राग ही मनुष्य के दुःख व अशान्ति का कारण है। रामकथा के माध्यम से जैन कवियों ने इसको बहुत ही सुंदर ढंग से समझाने का प्रयास किया है। बडे़- बड़े महापुरुष भी इस राग (आसक्ति) से चिपके रहते हैं। जब यह राग समाप्त हो जाता है तो वे सुख व शान्ति प्राप्त कर लेते हैं। आसक्ति का त्याग ही सुख व शान्ति का मार्ग है। इससे पूर्व हमने लक्ष्मण के मन की आसक्ति का एक रूवरूप देखा। यहाँ रामकथा के नायक ‘राम’ के मन की आसक्ति का संक्षेप में कथन किया जा रहा है। अन्त में आसक्तिका त्याग कर राम ने निर्वाण पद को प्रा

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लक्ष्मण की राम के प्रति आसक्ति

जैनधर्म एवं दर्शन में समस्त दोषों का आधार आसक्ति के मूल में देखा गया है। आसक्ति अज्ञान जनित है। आसक्ति से उत्पन्न दुष्परिणामों को भुगतने पर ही सही ज्ञान का होना प्रारम्भ होता है। राम-लक्ष्मण व सीता के दुःखों के मूल में भी यही आसक्ति विद्यमान थी। पउमचरिउ के अन्त में भी इन पात्रों में विद्यमान  आसक्ति के चरमरूप का कथन किया गया है जो प्रत्येक व्यक्ति की आसक्तियों को भी भली भाँति उदघाटित करती है। यहाँ सर्वप्रथम लक्ष्मण की राम के प्रति आसक्ति का कथन किया जा रहा है। लक्ष्मण की राम के प्रति आसक्ति - एक

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रामकथा के मुख्य पात्रों के पूर्वभव व भविष्य कथन

पउमचरिउ में वर्णित मुख्य पात्रों का पूर्वभव व भविष्य कथन जैनधर्म के कर्मसिद्धान्त पर प्रकाश डालता है। हम इस पर थोड़ा ध्यान से विचार करें तो हम समझ सकेंगे कि राम,रावण, सीता व लक्ष्मण का सम्बन्ध एक जन्म का नहीं है। उनका यह सम्बन्ध पूर्व भवों से उनके कर्मों के आधार पर चला आ रहा है और आगे भी चलता रहेगा। जैन दर्शन के कर्म सिद्धान्त को इससे भलीभाँति समझा जा सकता है। i पूर्वभव कथन राम - वणिकपुत्र धनदत्त, स्वर्ग में देव, पंकजरुचि नामक वणिकपुत्र, ईशान स्वर्ग में देव, कनकप्रभनामक राजपुत्र, महेन्द्रस्वर्ग म

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पउमचरिउ काव्य में नारद की अद्भुत् भूमिका

पउमचरिउ नामक काव्य के ये एक महत्वपूर्ण पात्र हैं। देखा जाय तो इनका पउमचरिउ में वर्णित किसी भी वंश से विशेषरूप से सम्बन्ध नहीं है और वैसे सभी के साथ सम्बन्ध है। भ्रमणशील प्रवृत्ति के कारण इनको अपने चारों तरफ की पूर्ण जानकारी भी रहती है। जो इनके साथ खुश है उसका ये पूरा साथ देते हैं और उसका बिगड़ा काम भी बनाने में सहयोग प्रदान करते हैं किन्तु इनकी जिससे इनकी नाराजगी है उससे प्रतिशोध लिए बिना भी नहीं रहते। अपनी विस्तृत जानकारी के कारण ये अपने सभी कार्यों में सफल होते देखे गये है। यहाँ हम पउमचरिउ में

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(हनुमान व लंकासुंदरी के सन्दर्भ में): समभाव से ही सौहार्द सम्भव है

इस अनादिनिधन संसार में सभी जीव दो स्तर पर जीवन यापन करते हैं- प्राकृतिक और अर्जित। प्रथम  प्राकृतिक स्तर पर सभी जीव प्रायः समान स्थिति लिए होते हैं, जैसे - सभी जीवों का जन्म लेकर मरना, सभी के लिए बाल्य, युवा, वृद्धावस्था का समानरूप से होना, सभी स्त्री जाति व पुरुष जाति के जीवों की अपनी जाति के अनुसार शारीरिक संरचना समान होना, सूर्य, चन्द्रमा, नदी, तालाब वृक्ष आदि की सुविधाएँ सभी को समान रूप से मिलना। दूसरे अर्जित स्तर पर अर्जन करना प्रत्येक व्यक्ति की निजि सम्पदा है, जो सभी व्यक्तियों को एक दूसर

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मेरा अनुरोध

सभी ब्लाग पाठकों से मेरा अनुरोध है, वे ब्लाग के विषय में अपने विचारों से मुझे अवश्य अवगत करवाये। लेखक को लगना चाहिए कि क्या पाठकों की उसमें रुचि है ? इससे लेखक में उत्साह भी बढता है साथ ही वह पाठको की रुचि के अनुरूप परिवर्तन की बात भी सोचता है। आशा है आप सब शीध्र ही अपने सुझावों से अवगत करवाकर मुझे आगे भी लिखने में प्रोत्साहित करेंगे। रामकथा पर आधारित मात्र दो ब्लाग और हैं, इसके बाद विषय बदला जायेगा।

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(चन्द्रनखा के सन्दर्भ में ): चरित्र का सम्बन्ध स्वबोध पर आधारित

प्रायः यह कहा जाता है, पढ़ने में आता है, या देखा भी जाता है कि मनुष्य के वातावरण का उस पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है। यह भी कहा जाता है कि 50 प्रतिशत गुण-दोष व्यक्ति में वंशानुगत होते हैं तथा प्रारम्भ में जो संस्कार उसको मिले वे आखिरी तक उस पर अपना प्रभाव बनाये रखते हैं। ये सब कथन काफी हद तक सही भी हैं। लेकिन जब हम रामकाव्य के पात्रों के जीवन को देखते हैं तो एक बात साफ उभरकर आती है कि कितना ही उपरोक्त कथन सही हो लेकिन जब व्यक्ति का स्वबोध जाग्रत होता है तो उपरोक्त सब बाते पीछे धरी रह जाती है और स

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(मन्दोदरी के सन्दर्भ में) अज्ञान जनित राग व भय दुःख व अशान्ति का कारण

यह संसार एक इन्द्रिय प्राणी से लेकर पाँच इन्द्रिय प्राणियों से खचाखच भरा हुआ है। इन सब प्राणियों में मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना गया है। मनुष्य की भी दो जातिया हैं - एक स्त्री और दूसरा पुरुष। सारा संसार मात्र इस स्त्री व पुरुष की क्रिया से नियन्त्रित है।संसार का अच्छा या बुरा स्वरूप इन दो जातियों पर ही टिका हुआ है। संसार में जब-जब भी दुःख व अशान्ति ने जन्म लिया तब- तब ही इन दोनों जातियों में उत्पन्न हुए करुणावान प्राणियों में ज्ञान का उद्भव हुआ और उन्होंने उस करुणा से उत्पन्न ज्ञान के सह

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(रावणपुत्र अक्षयकुमार के सन्दर्भ में) कथनी और करनी में भेद

रावण का दूसरा पुत्र अक्षयकुमार भी बहुत पराक्रमी एवं विद्याधारी था। अक्षय कुमार व हनुमान के मध्य हुए युद्ध में प्रारम्भ में हनुमान भी उसे नहीं जीत सका। हनुमान ने भी प्रारंभ में उसकी स्फूर्ति की प्रशंसा करते हुए कहा कि देवता भी जिसकी गति का पार नहीं पा सकते उसके साथ मैं कैसे युद्ध करूँ। अक्षयकुमार ने अपनी अक्षयविद्या से अनन्त सेना उत्पन्न कर दी, किन्तु अन्त में वह हनुमान के शस्त्रों से मारा गया। अक्षयकुमार की एक छोटी सी घटना के माध्यम से हम यह देखेंगे कि अक्षयकुमार के समान इस संसार में कितने लोग ह

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(रावणपुत्र इन्द्रजीत के सन्दर्भ में) अज्ञानी व्यक्ति की संगति हानिप्रद है चाहे वह पुत्र ही हो

हम सब भली भाँति समझते है कि मनुष्य जीवन में संगति और आस-पास के वातावरण का बहुत महत्व है। यह भी सच है कि मनुष्य की संगति और उसके वातावरण का सम्बन्ध उसके जन्म लेने से है, जिस पर कि उसका प्रत्यक्ष रूप से कोई अधिकार नहीं। जहाँ मनुष्य जन्म लेगा प्रारम्भ में वही स्थान उसका वातावरण होगा और वहाँ पर निवास करने वालों के साथ उसकी संगति होगी। यही कारण है कि बच्चे पर अधिकांश प्रभाव उसके माता-पिता, भाई- बहिन और यदि संयुक्त परिवार हो तो दादा-दादी और चाचा- चाची का होता है। कईं बार तो बच्चा जिसके सम्पर्क में ज्य

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(विभीषण के सन्दर्भ में) : व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास के लिए गुणानुरागी होना आवश्यक

व्यक्ति और समाज का परष्पर अटूट सम्बन्ध है। समाज के बिना व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है, तथा व्यक्तियों से मिलकर ही समाज का निर्माण होता है। इस तरह व्यक्ति समाज की एक इकाई है। इस प्रत्येक इकाई का अपना निजी महत्व है। मनुष्य के अकेले जन्म लेने और अकेले मरण को प्राप्त होने से व्यक्ति की व्यक्तिगत महत्ता का आकलन किया जा सकता है। संसार में भाँति भाँति के मनुष्य हैं, उन सबकी भिन्न- भिन्न विशेषताएँ हैं। अपने आसपास के वातावरण, संगति तथा अपनी बदलती शारीरिक अवस्था के प्रभाव से व्यक्ति का व्यक्तित्व भी निर

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(रावण के सन्दर्भ में) शीलाचार का महत्व

अब तक हमने रामकथा के इक्ष्वाकुवंश एवं वानरवंश के पात्रों के माध्यम से रामकथा के संदेश को समझने की कोशिश की। अब राक्षसवंश के प्रमुख पात्र रावण के माध्यम से शीलाचार के महत्व को भी समझने का प्रयास करते हैं। जिस प्रकार रामकाव्य के नायक श्री राम का चरित्र मात्र सीता के परिप्रेक्ष में उनके राजगद्दी पर बैठने से पूर्व तथा राजगद्दी पर बैठने के बाद भिन्नता लिए हुए है वैसे ही रावण का चरित्र भी सीता हरण से पूर्व तथा सीता हरण के बाद का भिन्नता लिए हुए हैं। शीलपूर्वक आचरण को भलीभाँति सरलतापूर्वक समझने हेतु रा

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वानरवंशियों में एक ही राजा ‘बालि’ विशिष्ट क्यो ?

रामकथाके माध्यम से हम अब तक इक्ष्वाकु, विद्याधर, वानर व राक्षसवंश से परिचित हो चुके हैं। उसमें हमने देखा कि सभी वानरवशी राजा पहले राक्षसवंश के साथ थे तथा दोनों में परष्पर मैत्री सम्बन्ध रहा है किन्तु  रावण द्वारा सीता का हरण किये बाद वानरवंश इक्ष्वाकुवंशी राम के साथ हो गया। अब हमें यह देखना है कि इन वानरवंशियों में मात्र एक राजा था जिसकी रावण से शत्रुता हुई वह राजा था बालि। सब के साथ रहकर भी अकेला बालि किस प्रकार स्वबोध में पूर्णता को प्राप्त था, यह हम देखते है पउमचरिउ में वर्णित बालि के जीवन कथ

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जागरूकता सफलता प्राप्ति की एक आवश्यक सीढी है

हम पुनः वंदन करते हंै, आचार्य रविषेण, आचार्य विमलसूरि, कवि स्वयंभू, तुलसीदास आदि अन्य सभी रामकाव्यकारों को जिन्होंने राम काव्य की रचना कर मानव के कल्याण हेतु मार्ग प्रदर्शित किया। आगे हम रामकाव्य के जाम्बवन्त पात्र का कथन करते हैं, जिसने राम को सीता की प्राप्ति में सहयोग दिया। काव्य के प्रारम्भिक काण्डों में जाम्बवन्त के सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं मिलता। मात्र 67वीं संधि के 14वें कडवक में सुग्रीव द्वारा की गई व्यूह रचना में जाम्बवन्त का उल्लेख इस प्रकार मिलता है- जो बुद्धि में सबसे बड़ा था और जि

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समर्पण कब, कहाँ और कैसे ? सीखे श्री हनुमानजी के जीवन से

मैं’ अहंकार की प्रबलता का द्योतक है, अहंकार जीवन के पतन का कारण है, समर्पण अहंकार के पतन का कारण है तथा अहंकार व समर्पण रहित जीवन निर्विकल्प शान्ति का कारण है। भरत चक्रवर्ती अहंकार के कारण चक्रवर्ती होकर भी अपने ही भाई बाहुबलि से पराजित हुए तथा उस भाई के आगे ही समर्पित होकर निर्विकल्प शान्ति प्राप्त की। बाहुबलि ने भरत के आगे समर्पण नहीं कर अपने ही भाई से युद्ध किया उसके बाद संसार सुखों को तुच्छ समझकर उनके प्रति समर्पित हो प्रव्रज्या ग्रहण कर निर्विकल्प शान्ति की प्राप्ति की। हनुमान ने अपने आपको

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(चारित्रवानों के संगठन से ही बुराईयों का विनाश सम्भव) राम को सीता की प्राप्ति में नल-नील, अंग-अंगद का सहयोग

आगम के अनुसार पुण्य से सुख की प्राप्ति तथा पाप से दुःख की प्राप्ति निश्चित है। इसका सीधा सा मतलब है जो क्रिया स्वयं को तथा दूसरे को सुख दे वह क्रिया पुण्य देने वाली है किन्तु इसके विपरीत जो क्रिया स्वयं के साथ दूसरे के लिए भी दुखदायी हो वह क्रिया पाप देनेवाली है। आगम में पाँच पाप (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह) तथा चार कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) को जो मानव का अहित करनेवाली है उनको अशुभ क्रिया के अन्तर्गत रखा गया है और क्षमा, विनय, सहजता, सत्य, निर्मल, संयम, तप, त्याग, सीमित परिग्रह, शीलव्रत

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वानरवंशी सुग्रीव का राम को सहयोग

हम सर्वप्रथम वंदन करते हैं, हमारे धर्माचार्यों एवं साधु सन्तो को, उसके बाद पुनः वंदन करते हैं ज्ञान के धनी विद्वानों को। धर्माचार्यों एवं विद्वानों ने ही निरन्तर साधना से ज्ञान अर्जित कर उस ज्ञान को सबके लिए समर्पित कर दिया। आज हम उस ज्ञान से किंचित मात्र भी कुछ ग्रहण कर सके हैं तो यह उनकी साधना का ही फल है। जैन रामकथा लिखने का श्रेय भी धर्माचार्यों व विद्वान को ही जाता है। प्राकृतभाषा में पउमचरियं की रचना आचार्य विमलसूरि द्वारा, संस्कृतभाषा में पद्मपुराण की रचना आचार्य रविषेण द्वारा तथा अपभ्रंश

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वानरवंशियों का रावण को छोड़कर राम को सहयोग क्यो ?

आगम में धर्म दो प्रकार का बताया गया है- 1 गृहस्थ धर्म  2. मुनि धर्म। गृहस्थ धर्म का उद्भव युवक -युवती का विवाह सूत्र में बंधकर पति-पत्नि का सम्बन्ध जुडने से प्रारम्भ होता है। इसीलिए विवाह को एक पवित्र व धार्मिक संस्कार की संज्ञा दी है। जबकि मुनि धर्म अंगीकार करने में युवती का कोई स्थान नहीं वहाँ मोक्षरूा लक्ष्मी की ही चाह रहती है। गृहस्थ धर्मं का भली भाँति निर्वाह पति-पत्नि दोनों के चारित्र पर निर्भर है। दोनों का चारित्र एक दूसरे की सुरक्षा, एक दूसरे को सद्मार्ग में चलने पर सहयोग करने पर ही फलता

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जीवन में सफलता प्राप्ति के लिए सहयोग आवश्यक

पूर्व में विद्याधरकाण्ड के blog  में विभिन्न वंशों के उद्भव के विषय में विस्तारपूर्वक विवेचना की गयी थी। वहाँ हमने देखा कि इक्ष्वाकुवंश का सम्बन्ध अयोध्या से तथा वानरवंश का सम्बन्ध किष्किंधनगर से एवं राक्षसवंश का सम्बन्ध लंका से रहा है। राम अयोध्या से चलकर किष्किंधनगर होते हुए लंका पहुँचे हैं। अतः हम इन तीनों वंशों के पात्रों के जीवन चरित्र से अयोध्या - उत्तर भारत, किष्किंधनगर- मध्य भारत तथा लंका - दक्षिण भारत की सभ्यता एवं संस्कृति के विषय में भी कुछ जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। चारित्र कथन में

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विशल्या: संयम व तप का फल

यहाँ विशल्या के पूर्वभव तथा वर्तमान भव के जीवन से संयम व तप के फल के महत्व को बताया गया है। यहाँ विशल्या के दोनों भवों के आधार पर हम यह देखेंगे कि संयम व तप का फल किस प्रकार मिलता है तथा संयम रहित जीवन क्या फल देता है ?  विशल्या अपने पूर्वभव में पुंडरीकिणी नगर के चक्रवर्ती राजा आनन्द की अनंगसरा नामक कन्या थी। अति सुन्दर होने के कारण वह पुर्णवसु विद्याधर के द्वारा हरण कर ले जाई गयी और मार्ग में वह पर्णलध्वी विद्या के सहारे हिंसक जानवरों से युक्त भयानक श्वापद नामक अटवी में उतर गयी। वहाँ उसने संयमप

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राम और सीता के जीवन में प्रवृत्ति और निवृत्ति का स्वरूप

मनुष्य का सारा जीवन प्रवृत्ति और निवृत्ति का ही खेल है और यही कारण है कि सभी धर्म ग्रंथों में भी प्र्रवृत्ति और निवृत्ति का ही कथन है। राम और सीता के जीवन में निवृत्ति का स्वरूप कैसा था इसको समझने से पहले संक्षेप में प्रवृत्ति और निवृत्ति का अर्थ समझना आवश्यक है। प्रवृत्ति - ज्ञाता के पाने या छोड़ने की इच्छा सहित चेष्टा का नाम प्रवृत्ति है।  छोडने की इच्छा से प्रवृत्ति में भी निवृत्ति का अंश देखा जाता है। निवृत्ति - बहिरंग विषय कषाय आदि रूप अभिलाषा को प्राप्त चित्त का त्याग करना निवृत्ति है। अर्थ

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(सीता): नारी के दुःखों का कारण राग, क्रोध एवं मान

सीता पउमचरिउ काव्य के नायक राम की पत्नी के रूप में पउमचरिउकाव्य की प्रमुख नायिका हैं। यह नायिका भारतीय स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है। सीता के जीवन चरित्र के माध्यम से स्त्री के मन के विभिन्न आयाम प्रकट होंगे जिससे स्त्री की मूल प्रकृति को समझने में आसानी होगी। ब्लाग 5 में राम के जीवन चरित्र के माध्यम से हम पुरुष के मूल स्वभाव से परिचित हुए थे। देखा जाय तो अच्छा जीवन जीने के लिए सर्वप्रथम स्त्री और पुरुष दोनों के मूल स्वभाव की जानकारी आवश्यक है। रामकाव्यकारों का रामकथा को लिखने का सर्वप्रमुख उद्

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कैकेयी: संवेदना अर्थात् करुणा रहित मन एक अपयश भरा जीवन

इससे पूर्व हमने रामकथा के इक्ष्वाकुवंश के प्रमुख पात्रों के जीवन चरित्र को देखने का प्रयास किया तथा उसके माध्यम से मानव मन के विभिन्न आयाम भी हमारे समक्ष उभरकर आये। हमने उसमें मुख्य बात यह देखी कि मानव का मन विभिन्न भावों से पूरित तो है ही साथ ही निरन्तर परिवर्तनशील भी है। यह मन ही तो है जो अपनी मति को संचालित करता है, और फिर जैसी मनुष्य की गति होती है, वैसी ही उसकी मति होती है। इसीलिए संतों एवं धर्माचार्यों ने इन्द्रियों एवं मति को नियन्त्रण करने हेतु कहा है। इस ही कडी में पउमचरिउ के आधार पर हम

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अपराजिता : जैसी समझ - वैसा ही जीवन

अभी हमने राम कथा से सम्बन्धित इक्ष्वाकुवंश के राजा दशरथ के परिवार के प्रमुख-प्रमुख पुरुषों का जीवन देखा। उनके जीवन चरित्र के आधार पर उनके जीवन में आये सुख-दःुख के कारणों पर कुछ प्रकाश पड़ा। इनके चरित्र से तादात्म स्थापित कर यदि हम देखें तो हम पायेंगे कि हमारे सुख-दुःख के भी यही कारण हैं। अब हम आगे प्रकाश डालते हैं, इक्ष्वाकुवंश के राजा दशरथ के परिवार की प्रमुख महिलाओं के जीवन पर। सबसे पहले देखते हैं राजा दशरथ की सबसे बडी रानी कौशल्या जिनका जैन रामकथा में अपराजिता नाम मिलता है।   अपराजिता रामकथा क

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