योगी की क्रियाओं को समझाने के बाद आगे आचार्य योगीन्दु मोही संसारी जीवों की क्रियाओं का कथन करते हैं। वे कहते हैं कि मोह में तल्लीन जीव बंध और मोक्ष के कारण को नहीं समझता इसलिए वह पुण्य और पाप करता रहता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
53. बंधहँ मोक्खहँ हेउ णिउ जो णवि जाणइ कोइ।
सो पर मोहे करइ जिय पुण्णु वि पाउ वि लोइ।।53।।
अर्थ - जो कोई भी अपने बंध और मोक्ष के कारण को नहीं जानता है, मोह में तल्लीन वह जीव लोक में पुण्य और पाप दोनों को ही करता है।
शब्दार्थ - बंधहँ
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि कषाय नष्ट होने पर ही मन शान्त होता है और तब ही जीव के संयम पलता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
41. जाँवइ णाणिउ उवसमइ तामइ संजदु होइ।
होइ कसायहँ वसि गयउ जीव असंजदु सोइ।।।41।।
अर्थ - जब तक ज्ञानी शांत रहता है, तब तक ही वह संयमी घटित होता है। कषायों के वश में गया हुआ वह ही जीव असंयमी हो जाता है।
शब्दार्थ - जाँवइ -जब तक, णाणिउ-ज्ञानी, उवसमइ-शान्त रहता है, तामइ-तब तक, संजदु-संयमी, होइ-होता है, होइ-हो जाता है, कसायहँ -कषायों के, वसि-वश में
प्रश्न 6 कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने पर प्रजा ने राजा ऋषभ से क्या कहा \
उत्तर 6 प्रजा ने कहा] हे राजन! हम भूख की मार से मरे जा रहे हैं। इस समय
खान पान व जीवन जीने के क्या उपाय है \
प्रश्न 7 प्रजा की करुण पुकार सुनकर राजा ऋषभ ने क्या कहा \
उत्तर 7 राजा ऋषभ ने उन्हें असि] मसि, कृषि, वाणिज्य और दूसरी अन्य
विद्याओं की शिक्षा दी।
प्रश्न 8 राजा ऋषभ का विवाह किससे हुआ \
उत्तर 8 नन्दा व सुनन्दा
अभी हमने राम कथा से सम्बन्धित इक्ष्वाकुवंश के राजा दशरथ के परिवार के प्रमुख-प्रमुख पुरुषों का जीवन देखा। उनके जीवन चरित्र के आधार पर उनके जीवन में आये सुख-दःुख के कारणों पर कुछ प्रकाश पड़ा। इनके चरित्र से तादात्म स्थापित कर यदि हम देखें तो हम पायेंगे कि हमारे सुख-दुःख के भी यही कारण हैं। अब हम आगे प्रकाश डालते हैं, इक्ष्वाकुवंश के राजा दशरथ के परिवार की प्रमुख महिलाओं के जीवन पर। सबसे पहले देखते हैं राजा दशरथ की सबसे बडी रानी कौशल्या जिनका जैन रामकथा में अपराजिता नाम मिलता है। अपराजिता रामकथा क
मैं’ अहंकार की प्रबलता का द्योतक है, अहंकार जीवन के पतन का कारण है, समर्पण अहंकार के पतन का कारण है तथा अहंकार व समर्पण रहित जीवन निर्विकल्प शान्ति का कारण है। भरत चक्रवर्ती अहंकार के कारण चक्रवर्ती होकर भी अपने ही भाई बाहुबलि से पराजित हुए तथा उस भाई के आगे ही समर्पित होकर निर्विकल्प शान्ति प्राप्त की। बाहुबलि ने भरत के आगे समर्पण नहीं कर अपने ही भाई से युद्ध किया उसके बाद संसार सुखों को तुच्छ समझकर उनके प्रति समर्पित हो प्रव्रज्या ग्रहण कर निर्विकल्प शान्ति की प्राप्ति की। हनुमान ने अपने आपको
आगम के अनुसार पुण्य से सुख की प्राप्ति तथा पाप से दुःख की प्राप्ति निश्चित है। इसका सीधा सा मतलब है जो क्रिया स्वयं को तथा दूसरे को सुख दे वह क्रिया पुण्य देने वाली है किन्तु इसके विपरीत जो क्रिया स्वयं के साथ दूसरे के लिए भी दुखदायी हो वह क्रिया पाप देनेवाली है। आगम में पाँच पाप (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह) तथा चार कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) को जो मानव का अहित करनेवाली है उनको अशुभ क्रिया के अन्तर्गत रखा गया है और क्षमा, विनय, सहजता, सत्य, निर्मल, संयम, तप, त्याग, सीमित परिग्रह, शीलव्रत
हम सर्वप्रथम वंदन करते हैं, हमारे धर्माचार्यों एवं साधु सन्तो को, उसके बाद पुनः वंदन करते हैं ज्ञान के धनी विद्वानों को। धर्माचार्यों एवं विद्वानों ने ही निरन्तर साधना से ज्ञान अर्जित कर उस ज्ञान को सबके लिए समर्पित कर दिया। आज हम उस ज्ञान से किंचित मात्र भी कुछ ग्रहण कर सके हैं तो यह उनकी साधना का ही फल है। जैन रामकथा लिखने का श्रेय भी धर्माचार्यों व विद्वान को ही जाता है। प्राकृतभाषा में पउमचरियं की रचना आचार्य विमलसूरि द्वारा, संस्कृतभाषा में पद्मपुराण की रचना आचार्य रविषेण द्वारा तथा अपभ्रंश
आगम में धर्म दो प्रकार का बताया गया है- 1 गृहस्थ धर्म 2. मुनि धर्म। गृहस्थ धर्म का उद्भव युवक -युवती का विवाह सूत्र में बंधकर पति-पत्नि का सम्बन्ध जुडने से प्रारम्भ होता है। इसीलिए विवाह को एक पवित्र व धार्मिक संस्कार की संज्ञा दी है। जबकि मुनि धर्म अंगीकार करने में युवती का कोई स्थान नहीं वहाँ मोक्षरूा लक्ष्मी की ही चाह रहती है। गृहस्थ धर्मं का भली भाँति निर्वाह पति-पत्नि दोनों के चारित्र पर निर्भर है। दोनों का चारित्र एक दूसरे की सुरक्षा, एक दूसरे को सद्मार्ग में चलने पर सहयोग करने पर ही फलता
पूर्व में विद्याधरकाण्ड के blog में विभिन्न वंशों के उद्भव के विषय में विस्तारपूर्वक विवेचना की गयी थी। वहाँ हमने देखा कि इक्ष्वाकुवंश का सम्बन्ध अयोध्या से तथा वानरवंश का सम्बन्ध किष्किंधनगर से एवं राक्षसवंश का सम्बन्ध लंका से रहा है। राम अयोध्या से चलकर किष्किंधनगर होते हुए लंका पहुँचे हैं। अतः हम इन तीनों वंशों के पात्रों के जीवन चरित्र से अयोध्या - उत्तर भारत, किष्किंधनगर- मध्य भारत तथा लंका - दक्षिण भारत की सभ्यता एवं संस्कृति के विषय में भी कुछ जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। चारित्र कथन में
यहाँ विशल्या के पूर्वभव तथा वर्तमान भव के जीवन से संयम व तप के फल के महत्व को बताया गया है। यहाँ विशल्या के दोनों भवों के आधार पर हम यह देखेंगे कि संयम व तप का फल किस प्रकार मिलता है तथा संयम रहित जीवन क्या फल देता है ? विशल्या अपने पूर्वभव में पुंडरीकिणी नगर के चक्रवर्ती राजा आनन्द की अनंगसरा नामक कन्या थी। अति सुन्दर होने के कारण वह पुर्णवसु विद्याधर के द्वारा हरण कर ले जाई गयी और मार्ग में वह पर्णलध्वी विद्या के सहारे हिंसक जानवरों से युक्त भयानक श्वापद नामक अटवी में उतर गयी। वहाँ उसने संयमप
मनुष्य का सारा जीवन प्रवृत्ति और निवृत्ति का ही खेल है और यही कारण है कि सभी धर्म ग्रंथों में भी प्र्रवृत्ति और निवृत्ति का ही कथन है। राम और सीता के जीवन में निवृत्ति का स्वरूप कैसा था इसको समझने से पहले संक्षेप में प्रवृत्ति और निवृत्ति का अर्थ समझना आवश्यक है। प्रवृत्ति - ज्ञाता के पाने या छोड़ने की इच्छा सहित चेष्टा का नाम प्रवृत्ति है। छोडने की इच्छा से प्रवृत्ति में भी निवृत्ति का अंश देखा जाता है। निवृत्ति - बहिरंग विषय कषाय आदि रूप अभिलाषा को प्राप्त चित्त का त्याग करना निवृत्ति है। अर्थ
सीता पउमचरिउ काव्य के नायक राम की पत्नी के रूप में पउमचरिउकाव्य की प्रमुख नायिका हैं। यह नायिका भारतीय स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है। सीता के जीवन चरित्र के माध्यम से स्त्री के मन के विभिन्न आयाम प्रकट होंगे जिससे स्त्री की मूल प्रकृति को समझने में आसानी होगी। ब्लाग 5 में राम के जीवन चरित्र के माध्यम से हम पुरुष के मूल स्वभाव से परिचित हुए थे। देखा जाय तो अच्छा जीवन जीने के लिए सर्वप्रथम स्त्री और पुरुष दोनों के मूल स्वभाव की जानकारी आवश्यक है। रामकाव्यकारों का रामकथा को लिखने का सर्वप्रमुख उद्
इससे पूर्व हमने रामकथा के इक्ष्वाकुवंश के प्रमुख पात्रों के जीवन चरित्र को देखने का प्रयास किया तथा उसके माध्यम से मानव मन के विभिन्न आयाम भी हमारे समक्ष उभरकर आये। हमने उसमें मुख्य बात यह देखी कि मानव का मन विभिन्न भावों से पूरित तो है ही साथ ही निरन्तर परिवर्तनशील भी है। यह मन ही तो है जो अपनी मति को संचालित करता है, और फिर जैसी मनुष्य की गति होती है, वैसी ही उसकी मति होती है। इसीलिए संतों एवं धर्माचार्यों ने इन्द्रियों एवं मति को नियन्त्रण करने हेतु कहा है। इस ही कडी में पउमचरिउ के आधार पर हम
आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी: अपभ्रंश भारतदेश के भाषात्मक विकास को तीन स्तरों पर देखा जा सकता है। 1. प्रथम स्तर: कथ्य प्राकृत, छान्द्स एवं संस्कृत (ईसा पूर्व 2000 से ईसा पूर्व 600 तक) वैदिक साहित्य से पूर्व प्राकृत प्रादेशिक भाषाओं के रूप में बोलचाल की भाषा (कथ्य भाषा) के रूप से प्रचलित थी। प्राकृत के इन प्रादेशिक भाषाओं के विविध रूपों के आधार से वैदिक साहित्य की रचना हुई औरा वैदिक साहित्य की भाषा को ‘छान्दस’ कहा गया, जो उस समय की साहित्यिक भाषा बन गई। आगे चलकर पाणिनी ने अपने समय तक चली आई
राम-सीता के पुत्र लवण व अंकुश के चरित्र के माध्यम से हम यहाँ मात्र यही देखेंगे कि भारतीय संस्कृति में पुत्रों की माँ और पिता के जीवन में क्या भूमिका होती है ? और माँ के दुःखों का कारण क्या है ? इसको पढने के बाद शायद सभी इस पर गंभीरता से विचार करेंगे। राम के द्वारा गर्भवती सीता को निर्वासन दिया जाने के कारण लवण व अंकुश का जन्म तथा लालन-पालन वज्रजंघ राजा के पुण्डरीक नगर में हुआ। सभी कलाओं में निष्णता प्राप्त करने के बाद युवावस्था प्राप्त होने पर पराक्रमी लवण व अंकुश ने खस, सव्वर, बव्वर, टक्क, कीर,
लक्ष्मण प्रशंसा एक ऐसी चीज है जिससे बड़े-योगी भी नहीं बच पाते। निन्दा की आँच जिसे जला भी नहीं सकती, प्रशंसा की छाँव उसे छार-छार कर देती है। लक्ष्मण राजा दशरथ व उनकी रानी सुमित्रा के पुत्र तथा काव्य के नायक राम के छोटे भाई हंै। राम व लक्ष्मण के विषय में स्वयंभू कहते हैं - एक्कु पवणु अण्णेक्कु हुआसणु, एक पवन था, तो दूसरा आग। सुन्दर व आकर्षक व्यक्तित्व के धनी लक्ष्मण के जीवन से सम्बन्धित कुछ घटनाएँ काव्य में इस प्रकार हैं- सुन्दर व आकर्षक तथा कला प्रिय लक्ष्मण के व्यक्तित्व में इतना आकर्षण थ
लक्ष्मण प्रशंसा एक ऐसी चीज है जिससे बड़े-योगी भी नहीं बच पाते। निन्दा की आँच जिसे जला भी नहीं सकती, प्रशंसा की छाँव उसे छार-छार कर देती है। लक्ष्मण राजा दशरथ व उनकी रानी सुमित्रा के पुत्र तथा काव्य के नायक राम के छोटे भाई हंै। राम व लक्ष्मण के विषय में स्वयंभू कहते हैं - एक्कु पवणु अण्णेक्कु हुआसणु, एक पवन था, तो दूसरा आग। सुन्दर व आकर्षक व्यक्तित्व के धनी लक्ष्मण के जीवन से सम्बन्धित कुछ घटनाएँ काव्य में इस प्रकार हैं- सुन्दर व आकर्षक तथा कला प्रिय लक्ष्मण के व्यक्तित्व में इतना आकर्षण थ
भरत पूर्व में राम के कथानक के माध्यम से स्वयंभू यही संदेष देना चाहते है कि प्रत्येक गृहस्थ व्यक्ति को अपने जीवन में सर्वप्रथम अपनी प्राथमिकताएँ निर्धारित करना चाहिए। प्राथमिकता पूरी होने के बाद आगे बढना चाहिए। इससे जीवन बहुत कम संघर्ष के आगे बढता है। राम की सबसे पहली प्राथमिकता उसकी माँ कौषल्या तथा पत्नी सीता होती है। आज भी यदि प्रत्येक व्यक्ति इस प्राथमिकता पर विचार कर इसको क्रियान्वित करने का प्रयास करे, तो एक षान्त और सुखी भारत का सपना साकार हो सकता है। इसी प्रकार हम स्वयंभू द्वारा रचित पउमचर
इससे पूर्व हमने दशरथ के चरित्र चित्रण के माध्यम से देखा कि अज्ञान अवस्था में रागभाव से की गयी मात्र एक गलती घर-परिवारजनों के लिए कितना संकट उत्पन्न कर देती है ? एक राग के कारण दशरथ अपनी पहली पत्नी कौशल्या के प्रति इतना संवेदनहीन हो गये कि वे यह भी विचार नहीं कर पाये कि कैकेयी की बात मानने से कौशल्या के मन पर क्या असर होगा। सारा परिवार किस प्रकार छिन्न भिन्न हो जायेगा। रागवश मनुष्य की मति संवेदनहीन हो जाती है। अब आगे हम राम के चरित्र के माध्यम से देखेंगे कि वह एक संकट आगे पुनः कितने नये संकटों को
4. दशरथ - जैन दर्शन के अनुसार कारण और कार्य का अपूर्व सम्बन्ध है। हेतुना न बिना कार्यं भवतीति किमद्भुतम्। अर्थात् कारण के बिना कार्य नहीं होता है, इसमें क्या आश्चर्य है ? इस ही आधार पर हम यहाँ भी देखेंगे कि किसी भी घटना का घटित होता कार्य और कारण के सम्बन्ध पर ही आश्रित है, अतः इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। इससे हमारा दृष्टिकोण स्पष्ट होने से रामकथा के सभी पात्रों के प्रति न्यायपूर्ण व्यवहार संभव हो सकेगा तथा रामकथा को भी भलीर्भांति समझ सकेंगे। आगे हम पउमचरिउ के अनुसार रामकथा के सभी प्रमुख प
अब हम रामकथा को रामकथा के पात्रों के चरित्र चित्रण के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे। पात्रों के चरित्र-चित्रण से राम काव्य की कथावस्तु तो स्पष्ट होगी ही, साथ ही मानव मन के विभिन्न आयाम भी प्रकट होंगे। इस संसार में रंक से लेकर राजा तक कोई भी मनुष्य पूर्णरूप से सुखी एवं षान्त नहीं है। प्रत्येक मनुष्य के विकास मार्ग को उसकी किसी न किसी मुख्य मानवीय कमजोरी ने अवरुद्ध कर रखा है। अज्ञानवष व्यक्ति अपनी कमजोरियों का अन्वेषण नहीं कर पाने के कारण उचित समय पर उनका परिमार्जन नहीं कर पाता,, जिससे वह अपने
पउमचरिउ का प्रथम विद्याधरकाण्ड जैन रामकथा का प्रथम विद्याधरकाण्ड आगे की सम्पूर्ण रामकथा का बीज है। इस विद्याधरकाण्ड का सही रूप से आकलन किया जाने पर ही अन्य रामकथाओं के सन्दर्भ में जैन रामकथा के वैषिष्ट्य को समझा जा सकता है। यह विद्याधरकाण्ड भारतदेष के षक्तिषाली विद्याधरो के कथन के माध्यम से भारतदेष की सभ्यता एवं संस्कृति का एक सुन्दर चित्रण है। इसमें भारतदेष में विभिन्न वंषों की उत्पत्ति एवं उन वंषों में रहे सम्बन्धों को बताया गया है। आगे की सम्पूर्ण रामकथा का सम्बन्ध भी इन्हीं वंषों से है। ये व
अपभ्रंश के प्रबन्ध ग्रन्थों में सर्वप्रथम ‘पउमचरिउ’ का नाम आता हैं। पउमचरिउ रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ महाकाव्य है। यह महाकाव्य 90 संधियों में पूर्ण होता है। पउमचरिउ की 83 संधियाँ स्वयं स्वयंभू द्वारा तथा शेष 7 संधियाँ स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन द्वारा लिखी गयी है। स्वयंभू कवि के पउमचरिउ का आधार आचार्य रविषेण का पद््मपुराण रहा है। उन्होंने लिखा है ‘रविसेणायरिय-पसाएं बुद्धिएॅ अवगाहिय कइराएं’ अर्थात् रविषेण के प्रसाद से कविराज स्वयंभू ने इसका अपनी बुद्धि से अवगाहन किया है। यहाँ स्वयंभू आचार्य रविषेण
यंभू अविवाद्य रूप से अपभ्रंश के श्रेष्ठ कवि तथा प्रबन्धकाव्य के क्षेत्र में अपभ्रंश के आदि कवि हैं। इनकी महानता को स्वीकार करते हुए अपभ्रंश के दूसरे महाकवि पुष्पदन्त ने उनको व्यास, भास, कालिदास, भारवि, बाण, चतुर्मुख आदि की श्रेणी में विराजमान किया है। स्वयंभू ‘महाकवि’, ‘कविराज’, ‘कविराज चक्रवर्ती’ जैसी उपाधियों से सम्मानित थे। जिस प्रकार सूर- सूर तुलसी-शशी जैसी उक्ति हिन्दी साहित्य की दो महान विभूतियों का यशोगान करती है उसी प्रकार अपभ्रंश साहित्य में ’सयम्भू-भाणु, पुफ्फयन्त-णिसिकन्त तो कोई अतिशय
भारतीय संस्कृति एवं रामकाव्य भारतीय संस्कृति प्राचीनकाल से परिष्कृत होती हुई सतत विकास की और प्रवाहमान है। विगत समय से लेकर वर्तमान पर्यन्त यदि हम भारतीय संस्कृति का अनुशीलन करें तो हम देखते हैं कि पूर्वकाल में जहाँ तक इतिहास की दृष्टि जाती है वहाँ तक बराबर श्रमण व वैदिक परम्परा के स्रोत दृष्टिगोचर होते हैं। इससे जान पड़ता है कि इतिहासातीत काल से वैदिक व श्रमण परम्पराएँ क्षेत्र और काल की दृष्टि से साथ-साथ विकसित होती चली आयीं हैं तथा भारतीय संस्कृति का निर्माण श्रमण और वैदिक परम्परा के मेल से ही