पुनः आचार्य योगीन्दु दृढ़तापूर्वक मोक्षमार्ग में प्रीति करने के लिए समझाते हैं कि यहाँ संसार में कोई भी वस्तु शाश्वत नहीं है, प्रत्येक वस्तु नश्वर है, फिर उनसे प्रीति किस लिए ? क्योंकि प्रिय वस्तु का वियोग दुःखदायी है और वियोग अवश्यंभावी है। जाते हुए जीव के साथ जब शरीर ही नहीं जाता तो फिर संसार की कौन सी वस्तु उसके साथ जायेगी। अतःः सांसारिक वस्तुओं से प्रीति के स्थान पर मोक्ष में प्रीति ही हितकारी है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा
129. जोइय सयलु वि कारिमउ णिक्कारिमउ ण कोइ।
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि सभी प्रकार के जीवों में मनुष्य ही श्रेष्ठ जीव है। जीवन में सुख-शान्ति का मतलब जितना वह समझ सकता है उतना कोई तिर्यंच आदि जीव नहीं। किन्तु देखने को यह मिलता है कि मनुष्य ही सबसे अशान्त जीव है। आचार्य ऐसे अशान्त जीव को शान्ति का मार्ग बताते हुए कहते हैं कि तू सांसारिक सुखों में उलझकर मोक्ष मार्ग को मत छोड़। मोक्ष का तात्पर्य शब्द कोश में शान्ति, दुःखों से निवृत्ति ही मिलता है। आचार्य के अनुसार जब हमारे जीवन का ध्येय शान्ति की प्राप्ति होगा तो हम सांसारिक सुखों को सही रूप
इस दोहे में आचार्य योगीन्दु स्पष्टरूप में घोषणा करते हैं कि हे प्राणी! यदि तू बेहोशी में जीकर इतना नहीं सोचेगा कि मेरे क्रियाओं से किसी को कोई पीड़ा तो नहीं पहुँच रही है तो तू निश्चितरूप से नरक के समान दुःख भोगेगा। इसके विपरीत यदि तेरी प्रत्येक क्रिया इतनी जागरूकता के साथ है कि तेरी क्रिया से किसी भी प्राणी को तकलीफ नहीं पहुँचती तो तू निश्चितरूप से स्वर्ग के समान सुख प्राप्त करेगा। यह कहकर आचार्य योगीन्दु बडे़ प्रेम से कहते हैं कि देख भाई मैंने तूझे सुख व दुःख के दो मार्गों को अच्छी तरह से समझा द
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि हे प्राणी! तू किसी भी क्रिया को करने से पहले उसके विषय में अच्छी तरह से विचार कर। अन्यथा भोगों के वशीभूत होकर अज्ञानपूर्वक की गयी तेरी क्रिया से जीवों को जो दुःख हुआ है उसका अनन्त गुणा दुःख तुझे प्राप्त होगा। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
126. मारिवि चूरिवि जीवडा जं तुहुँ दुक्खु करीसि ।
तं तह पासि अणंत-गुण अवसइँ जीव लहीसि।।
अर्थ - हे जीव! तू जीवों को मारकर, कुचलकर (उनके लिए) जो दुःख उत्पन्न करता है, उस (दुःख के फल) को तू उस (दुःख) की
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि हे प्राणी! तू किसी भी क्रिया को करने से पहले उसके विषय में अच्छी तरह से विचार कर। अन्यथा भोगों के वशीभूत होकर अज्ञानपूर्वक की गयी तेरी क्रिया से जीवों को जो दुःख हुआ है उसका अनन्त गुणा दुःख तुझे प्राप्त होगा। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
126. मारिवि चूरिवि जीवडा जं तुहुँ दुक्खु करीसि ।
तं तह पासि अणंत-गुण अवसइँ जीव लहीसि।।
अर्थ - हे जीव! तू जीवों को मारकर, कुचलकर (उनके लिए) जो दुःख उत्पन्न करता है, उस (दुःख के फल) को तू उस (दुःख) की
आचार्य योगीन्दु की यह गाथा सार्वकालिक व सार्वभौमिक है। हम सभी गृहस्थ जीव आज पुत्र, पुत्री, पत्नी, पति के मोह में पड़कर उनके सुख के लिए कितने ही लोगों को दुःखी कर पाप अर्जित करते हैं। हम बच्चों को रागवश उनकी सभी उचित अनुचित अभिलाषा पूर्ण कर उनको प्रमादी व पराधीन बना देते हैं। इसका परिणाम हम जब भुगतते हैं जब वे हमारे रागवश बिगड़ जाते हैं और हमारी वृद्धावस्था में हमारे दुःख का कारण बनते हैं। इसके अतिरिक्त वे लोग भी हमसे दूर हो जाते हैं जिनकोे हमने अपने बच्व्चो के कारण दुःख दिया। इस प्रकार पुत्र व स्त
आचार्य योगीन्दु की यह गाथा सार्वकालिक व सार्वभौमिक है। हम सभी गृहस्थ जीव आज पुत्र, पुत्री, पत्नी, पति के मोह में पड़कर उनके सुख के लिए कितने ही लोगों को दुःखी कर पाप अर्जित करते हैं। हम बच्चों को रागवश उनकी सभी उचित अनुचित अभिलाषा पूर्ण कर उनको प्रमादी व पराधीन बना देते हैं। इसका परिणाम हम जब भुगतते हैं जब वे हमारे रागवश बिगड़ जाते हैं और हमारी वृद्धावस्था में हमारे दुःख का कारण बनते हैं। इसके अतिरिक्त वे लोग भी हमसे दूर हो जाते हैं जिनकोे हमने अपने बच्व्चो के कारण दुःख दिया। इस प्रकार पुत्र व स्त
आचार्य योगीन्दु ने अपनी अथक साधना से जीवन की शान्ति के मार्ग का अनुसंधान किया है। उस ही अनुसंधान के आधार पर वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि जीवन में शान्ति का मार्ग मात्र आत्म चिंतन ही है। आत्मा का ध्यान करने वाले को सभी की आत्मा समान जान पडती है जिससे उसके द्वारा की गया प्रत्येक क्रिया स्व और पर के लिए हितकारी होती है। इसी से उसका जीवन शान्तिमय होता है। अतः घर-परिवार की चिन्ता करने से शान्ति नहीं अपितु आत्मा का चिंतन करने से ही शान्ति प्राप्त हो सकती है।देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
124.
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि हे जीव! तू मात्र अपनी आत्मा को ही अपनी मान। उसके अतिरिक्त घर, परिवार, शरीर और अपने प्रियजन पर हैं। योगियों के द्वारा आगम में इन सबको कर्मों के वशीभूत और कृत्रिम माना गया है। आत्मा पर श्रृद्वान होने से ही व्यक्ति स्व का कल्याण कर पर कल्याण के योग्य बनता है। जब वह अपनी आत्मा पर श्रृद्वान करता है तो उसे पर की आत्मा भी स्वयं के समान प्रतीत होती है। इसीलिए आचार्य योगीन्दु ने आत्मा पर श्रृ़द्वान करने के लिए कहा है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
123. जीव म जाण
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि चाहे यह लोक हो या परलोक, दुःख का कारण मात्र अपना अज्ञान ही है जिसके कारण हम पति, सन्तान व स्त्रियों से मोह कर दुःख उठाते है। यदि हम अपने ज्ञान से अपना मोह समाप्त कर लेंगे तो हमारा वर्तमान जीवन तो शान्त होगा ही और यही हमारी शान्त दशा हमें परलोक में ले जायेगी। मोक्ष का अर्थ भी शान्ति ही तो है। अतः शान्ति के इच्छुक भव्य जनों को अपने ज्ञान से मोह को नष्ट करना चाहिए। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
122. जोणिहि लक्खहि परिभमइ अप्पा दुक्खु सहंतु।
पुत्
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि हम सब अज्ञानी जीव भोगों में फँसकर दिन रात अपने-अपने व्यापार में लगे हुए हैं । हमारे पास आत्मा के चिंतन के लिए जरा सा भी समय नहीं है, जो कि शान्ति का सबसे बड़ा साधन है। यही कारण है कि आज सारा जगत अपने इन ही कारणों से अशान्त है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
121. धंधइ पडियउ सयलु जगु कम्मइँ करइ अयाणु।
मोक्खहँ कारणु एक्कुु खणु णवि चिंतइ अप्पाणु।।
अर्थ -धंधे में फँसा हुआ समस्त अज्ञानी जगत (ज्ञानावरणादि आठों) कर्मों को करता है,(किन्त)ु मोक्ष क
आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी मुनिराज को समझाते हैं कि हे योग का निरोध करनेवाले जीव, जब तूने संसार के भय से घबराकर शान्ति हेतु मोक्ष मार्ग अपनाया है तो फिर तू पुनः संसार भ्रमण के कर्मों को क्यों करता है ? देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
120. जिय अणु-मित्तु वि दुक्खडा सहण ण सक्कहि जोइ।
चउ-गइ-दुक्खहँ कारणइँ कम्मइँ कुणहि किं तोइ।।
अर्थ - 120. हे योग का निरोध करनेवाले जीव! तू अणुमात्र भी दुःख सहन करने के लिए समर्थ नहीं होता है, तो फिर तू चारों गतियों के दुःखों के हेतु क
आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी साधु को समझाते हैं कि तू संसार में भ्रमण करता हुआ बहुत दुःख प्राप्त कर रहा है। अतः अब शीघ्र अपने आठों ही कर्मों को नष्ट कर, जिससे मोक्ष को प्राप्त हो सके। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
119. पावहि दुक्खु महंतु तुहुँ जिय संसारि भमंतु।
अट्ठ वि कम्मइँ णिद्दलिवि वच्चहि मुक्खु महंतु।।
अर्थ -. हे जीव! तू संसार में भ्रमण करता हुआ बहुत दुःख प्राप्त करता है। (अतः) आठों ही कर्मों को नष्ट कर श्रेष्ठ (स्थान) मोक्ष जा।
शब्दार्थ -पावहि-प्राप्त
आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी उन साधुजनों को समझा रहे हैं जो साधु मार्ग का अनुकरण कर कठोर चर्या का पालन करके भी अनेक प्रकार की आसक्तियों में पड़कर आत्म हित नहीं कर रहे हैं। वे कहते हैं जिन राज सुखों को पाने के लिए लोग अपनी जान लगा देते हैं, उन राज्य सुखों का जिनवरों ने आसानी से त्याग कर मोक्ष प्राप्ति के द्वारा आत्म हित कर लिया। किन्तु हे मूर्ख साधु तुझे तो किसी प्रकार का राज सुख भी नहीं त्यागना पड़ा, फिर भी तू आत्म हित में तत्पर नहीं है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
118. मोक्खु जि सा
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि व्यक्ति की जीवन यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव उसकी युवावस्था है। बच्चे का जब बचपन होता है तब उसके माता-पिता की युवावस्था होती है। उस युवावस्था में माता-पिता का जीवन अनुशासन में होता है तो वे बच्चे की परवरिश बहुत अच्छी कर पाते हैं। जब बच्चा युवा अवस्था को प्राप्त होता है तो तो वही बच्चा युवा अवस्था प्राप्त कर वृद्धावस्था को प्राप्त हुए अपने माता-पिता की परवरिश अच्छी तरह से कर पाता है। इस प्रकार बच्चों और माता-पिता का सम्पूर्ण जीवन आनन्दमय, सुख और शान्ति के साथ व्यतीत
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि व्यक्ति की जीवन यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव उसकी युवावस्था है। बच्चे का जब बचपन होता है तब उसके माता-पिता की युवावस्था होती है। उस युवावस्था में माता-पिता का जीवन अनुशासन में होता है तो वे बच्चे की परवरिश बहुत अच्छी कर पाते हैं। जब बच्चा युवा अवस्था को प्राप्त होता है तो तो वही बच्चा युवा अवस्था प्राप्त कर वृद्धावस्था को प्राप्त हुए अपने माता-पिता की परवरिश अच्छी तरह से कर पाता है। इस प्रकार बच्चों और माता-पिता का सम्पूर्ण जीवन आनन्दमय, सुख और शान्ति के साथ व्यतीत
आचार्य योेगिन्दु अपने साधर्मी योगी को प्रेम का त्याग करने के लिए एवं वैराग्य के पथ पर अग्रसर होने के लिए कह रहे हैं। वे समझा रहे हैं कि तू इस जगत को देख कि यह प्रेम की आसक्ति के कारण कितने दुःखों को झेल रहा है। एनके अनुसार प्रेम सुख रूप वैराग्य वृद्धि में बाधक है। बन्धुओं, कबीरदास जी ने ‘ढाई आखर प्रेम का पढे सो पंडित होइ’ यह दोहा गृहस्थों के लिए कहा है। अतः यह सिद्ध होता है कि गृहस्थ के लिए प्रेम की मुख्यता है तो साधुजन के लिए वैराग्य की प्रमुखता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
115. जो
आचार्य योेगिन्दु अपने साधर्मी योगी को प्रेम का त्याग करने के लिए एवं वैराग्य के पथ पर अग्रसर होने के लिए कह रहे हैं। वे समझा रहे हैं कि तू इस जगत को देख कि यह प्रेम की आसक्ति के कारण कितने दुःखों को झेल रहा है। एनके अनुसार प्रेम सुख रूप वैराग्य वृद्धि में बाधक है। बन्धुओं, कबीरदास जी ने ‘ढाई आखर प्रेम का पढे सो पंडित होइ’ यह दोहा गृहस्थों के लिए कहा है। अतः यह सिद्ध होता है कि गृहस्थ के लिए प्रेम की मुख्यता है तो साधुजन के लिए वैराग्य की प्रमुखता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
115. जो
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि लोभ एक ऐसा भाव है जिसके रहते व्यक्ति कभी भी शाश्वत सुख की प्राप्ति की ओर नहीं बढ़ सकता है। वह सारा समय दुःखी होकर ही व्यतीत करता है। आज के युग में समस्त जगत लोभ में लीन होने के कारण ही दुःखी है। इसीलिए आचार्य योगीन्दु योगीजनों को लोभ के त्याग करने का उपदेश दे रहे हैं। वे कहते हैं- देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
113. जोइय लोहु परिच्चयहि लोहु ण भल्लउ होइ।
लोहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ।।
अर्थ - हे योगी! (तू) लोभ को पूरी तरह छोड दे, लोभ
आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी साधुओं को समझाते हुए कहते हैं कि जब मात्र एक रूप में आसक्त हुए कीट पतंग जीव दीपक में जलकर मर जाते हैं,े शब्द विषय में लीन हिरण व्याघ के बाणों से मारे जाते हैं, हाथी स्पर्श विषय के कारण गड्ढे में पड़कर बाँधे जाते हैं, सुगंध की लोलुपता से भौरें कमल में दबकर प्राण छोड़ देते हैं और रस के लोभी मच्छ धीवर के जाल में पड़कर मारे जाते हैं, तो यह जानते हुए भी साधु विषयों में क्यों रमते हैं ? देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
112. रूवि पयंगा सद्दि मय गय फासइ णासंति।
आचार्य योगीन्दु मुनिराजों की आहार के प्रति आसक्ति को एक दम अनुचित मानते हैं। वेे कहते हैं कि जिस परम तत्त्व को स्वयं समझने और श्रावकों को समझाने हेतु उन्होंने मुनि पद धारण किया है वही मुनि पद उनकी आहार में आसक्ति होने के कारण निष्फल हो जाता है। आहार में आसक्ति उन्हें गिद्धपक्षी के समान बना देती है। मन में भोजन के प्रति गिद्धता उत्पन्न होने से परम तत्त्व को समझ पाना बहुत मुश्किल है, और जो उस परम तत्त्व को स्वयं नहीं समझ सकता वह दूसरों को कैसे समझा सकता है। अतः मुनि के लिए आहार में आसक्ति का त्याग
बन्धुओं, मैं नहीं जानती कि आप सब इन दोहों के माध्यम से कितना आनन्द ले पा रहे हैं, लेकिन मुझे तो बहुत आनन्द आ रहा है। मुझे ऐसा लग रहा है जैसे हमारे घर में हमारे माता-पिता हमको हमारी गलतियाँ बताकर अच्छा जीवन जीना सीखाते हैं, वैसे ही आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी साधुओं को साधु जीवन की शिक्षा दे रहे हैं। वे कहते हैं, हे साधु! यदि तू बारह प्रकार के तप के फल की इच्छा करता है तो मन, वचन काय के द्वारा भोजन की आसक्ति का त्याग कर। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
111.3 जइ इच्छसि भो साहू बारह-विह-
देखा जाय तो हम सभी का भोजन अपनी चर्या के अनुसार ही होना चाहिए। तन के स्वस्थ नहीं होने का मूल कारण यही है कि हम अपनी चर्या के अनुसार भोजन ग्रहण नहीं करते हैं। यहाँ योगीन्दु आचार्य अपने साधर्मी बन्धु मुनिराज को, जो अपनी चर्या के अनुसार आहार ग्रहण नहीं करते उनको लक्ष्य कर कहते हैं कि तू नग्न वेश धारण करके भी अपने लक्ष्यकी प्राप्ति में साधक आहार क्यों नहीं ग्रहण करता है, क्यो स्वादिष्ट आहार की इच्छा करता है ? देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
111.2 काऊण णग्गरूवं बीभस्सं दड्ढ-मडय-सारिच्छं।
आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी योगीराज को सम्बोधित कर कहते हैं कि हे योगी! मोह ही समस्त दुःखों का कारण है, इसलिए तू मोह का पूरी तरह से त्याग कर। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
111. जोइय मोहु परिच्चयहि मोहु ण भल्लउ होइ।
मोहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ।।
अर्थ -हे योगी! मोह को पूरी तरह छोड़ दे, मोह अच्छा नहीं होता है। मोह से लीन समस्त जगत (प्राणी) को (तू) दुःख सहता हुआ देख।
शब्दार्थ -जोइय- हे योगी! मोहु-मोह को, परिच्चयहि-पूरी तरह से छोड़, मोहु -मोह, ण-नहीं, भल्लउ-अच
आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी मुनिराजों को समझाते हैं कि दुष्टों की संगति दुष्टों के साथ हो तो सामान्य बात है लेकिन जब सज्जन दुष्टों की संगति करते हैं तो सज्जन व्यक्तियों के गुण नष्ट हो जाते हैं और उनकी सज्जनता भी दुर्जनता में बदलने लगती है। जिस प्रकार आग लोहे से मिलने पर हथोड़े से पीटी जाती है। इसलिए यदि सज्जनों को अपने गुणों में स्थित रहना है तो उनके लिए दुष्टों की संगति का त्याग अति आवश्यक है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
110. भल्लाहँ वि णासंति गुण जहँ संसग्ग खलेहिं।
वइस