Jump to content
फॉलो करें Whatsapp चैनल : बैल आईकॉन भी दबाएँ ×
JainSamaj.World
  • वीर शासन और उसका महत्त्व

       (0 reviews)

    admin

    veer shasan.jpg

    अन्तिम तीर्थंकर भगवान वीर ने लगभग 2550 वर्ष पूर्व बिहार प्रान्त के विपुलाचल पर्वत पर स्थित होकर श्रावण कृष्णा प्रतिपदा की पुण्यवेला में, जब सूर्य का उदय प्राची से हो रहा था, संसार के संतप्त प्राणियों के संताप को दूर कर उन्हें परम शान्ति प्रदान करने वाला धर्मोपदेश दिया था। उनके धर्मोपदेश का यह प्रथम दिन था। इसके बाद भी लगातार उन्होंने तीस वर्ष तक अनेक देशदेशान्तरों में विहार करके पथभ्रष्टों को सत्पथ का प्रदर्शन कराया था, उन्हें सन्मार्ग पर लगाया था। उस समय जो महान् अज्ञान-तम सर्वत्र फैला हुआ था, उसे अपने अमृत-मय उपदेशों द्वारा दूर किया था। लोगों की भूलों को अपनी दिव्य वाणी से बताकर उन्हें तत्त्वपथ ग्रहण कराया था, सम्यक्दृष्टि बनाया था। उनके उपदेश हमेशा दया एवं अहिंसा से ओत-प्रोत हुआ करते थे। यही कारण था कि उस समय की हिंसामय स्थिति अहिंसा में परिणत हो गयी थी और यही वजह थी कि इन्द्रभूति जैसे कट्टर वैदिक ब्राह्मण विद्वान् भी, जिन्हें बाद को भगवान वीर के उपदेशों के संकलनकर्ता - मुख्य गणधर तक के पद का गौरव प्राप्त हुआ है, उनके उपाश्रय में आये और अन्त में उन्होंने मुक्ति को प्राप्त किया। इस तरह भगवान वीर ने अवशिष्ट तीस वर्ष के जीवन में संख्यातीत प्राणियों का उद्धार किया और जगत को परम हितकारक सच्चे धर्म का उपदेश दिया। वीर का यह सब दिव्य उपदेश ही 'वीरशासन' या 'वीरतीर्थ' है और इस तीर्थ को चलाने-प्रवृत्त करने के कारण ही वे 'तीर्थंकर' कहे जाते हैं। वर्तमान में उन्हीं का शासन - तीर्थ चल रहा है। यह वीर-शासन क्या है? उसके महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त कौन से हैं? और उसमें क्या-क्या उल्लेखनीय विशेषतायें हैं? इन बातों से बहुत कम सज्जन अवगत हैं। अतः इन्हीं बातों पर संक्षेप में कुछ विचार किया जाता है।

    समन्तभद्र स्वामी ने, जो महान् तार्किक एवं परीक्षाप्रधानी प्रसिद्ध जैन आचार्य थे और जो आज से लगभग 1800 वर्ष पूर्व हो चुके हैं, भगवान महावीर और उनके शासन की सयुक्तिक परीक्षा एवं जाँच की है - 'युक्तिमद्वचन' अथवा ‘युक्तिशास्त्राविरोधिवचन' और 'निर्दोषता' की कसौटी पर उन्हें और उनके शासन को खूब कसा है। जब उनकी परीक्षा में भगवान् महावीर और उनका शासन सौटंकी स्वर्ण की तरह ठीक साबित हुये तभी उन्हें अपनाया है। इतना ही नहीं, किन्तु भगवान् वीर और उनके शासन की परीक्षा करने के लिये अन्य परीक्षकों तथा विचारकों को भी आमन्त्रित किया है - निष्पक्ष विचार के लिये खुला निमंत्रण दिया है। समन्तभद्र स्वामी के ऐसे कुछ परीक्षा-वाक्य थोड़े-से ऊहापोह के साथ नीचे दिये जाते हैं

    देवागमनभोयानचामरादिविभूतयः। मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ॥

    (आप्तमीमांसा 1)

    'हे वीर? देवों का आना, आकाश में चलना, चमर, छत्र, सिंहासन आदि विभूतियों का होना तो मायावियों - इन्द्रजालियों में भी देखा जाता है, इस वजह से आप हमारे महान् - पूज्य नहीं हो सकते और न इन बातों से आपकी कोई महत्ता या बड़ाई है।

    समन्तभद्र स्वामी ने ऐसे अनेक परीक्षा-वाक्यों द्वारा उनकी और उनके शासन की परीक्षा की है, जिनका कथन सूत्ररूप से आप्त-मीमांसा में दिया हुआ है। परीक्षा करने के बाद उन्हें उनमें महत्ता की जो बात मिली है और जिसके कारण भगवान् वीर को 'महान' तथा उनके शासन को 'अद्वितीय' माना है। वह यह है-

    त्वं शुद्धि-शक्त्योरदियस्य काष्ठां, तुलाव्यतीतां जिन शान्तिरूपाम् ।

    अवापिथ ब्रह्मपथस्य नेता, महानितीयत्प्रतिवक्तमीशाः॥

    (युक्त्यनुशासन 4)

    ‘हे जिन ! आपने शुद्धि के - ज्ञानावरण और दर्शनावरणकर्म के क्षय से उत्पन्न आत्मीय ज्ञान-दर्शन के तथा शक्ति के - वीर्यान्तरायकर्म के क्षय से उत्पन्न आत्म बल के - परम प्रकर्ष को प्राप्त किया है - आप अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान और अनन्तवीर्य के धनी हैं। साथ ही अनुपम एवं अपरिमेय शान्तिरूपता को - अनन्तसुख को भी प्राप्त हैं, इसी से आप ‘ब्रह्मपथ' के - मोक्षमार्ग के - नेता हैं और इसीलिए आप महान् हैं - पूज्य हैं। ऐसा हम कहने - सिद्ध करने के लिए समर्थ हैं।' समन्तभद्र वीरशासन को अद्वितीय बतलाते हुए लिखते हैं -

    दया-दम-त्याग-समाधि-निष्ठं, नयप्रमाणप्रकृताञ्जसार्थम्। 

    अधृष्यमन्यैरखिलैः प्रवादेर्जिन त्वदीयं मतमद्वितीयम्॥

    ( युक्त्यनुशासन)

    हे वीर जिन! आपका मत - शासन नय और प्रमाणों के द्वारा वस्तुतत्त्व को बिलकुल स्पष्ट करनेवाला है और अन्य समस्त एकान्तवादियों से अबाध्य है - अखंडनीय है, साथ में दया - अहिंसा, दम - इन्द्रिय - निग्रहरूप संयम, त्याग - दान अथवा समस्त परिग्रह का परित्याग और समाधि - प्रशस्त ध्यान इन चारों की तत्परता को लिये हुये है, इसलिए वह 'अद्वितीय' है।

    दया के बिना दम - संयम नहीं बन सकता और संयम के बिना त्याग नहीं और त्याग के बिना समाधि - प्रशस्त ध्यान नहीं हो सकता, इसी से वीरशासन में दया - अहिंसा को प्रधान स्थान प्राप्त है। 'वीर-शासन' की इस महत्ता को बतलाने के बाद समन्तभद्र उसे ‘सर्वोदयतीर्थ' भी बदलाते हैं 

    सर्वान्तवत्तद्दगुणमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम्।

    सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव॥

    (युक्त्यनुशासन)

    ‘हे वीर ! आपका तीर्थ - शासन अथवा परमागम-द्वादशाङ्गश्रुत-समस्त धर्मों वाला है और मुख्य-गौण की अपेक्षा समस्त धर्मों की व्यवस्था से युक्त है - एक धर्म के प्रधान होने पर अन्य बाकी धर्म गौण मात्र हो जाते हैं - उनका अभाव नहीं होता। किन्तु एकान्तवादियों का आगमवाक्य अथवा शासन परस्पर निरपेक्ष होने से सब धर्मों वाला नहीं है - उनके यहाँ धर्मों में परस्पर अपेक्षा न होने से दूसरे धर्मों का अभाव हो जाता है और उनके अभाव हो जाने पर उस अविनाभावी अभिप्रेत धर्म का भी अभाव हो जाता है। इस तरह एकान्त में न वाच्यत्त्व ही बनता है और न वाचकतत्त्व ही। और इसलिए हे वीर जिनेन्द्र ! परस्पर की अपेक्षा रखने के कारण - अनेकान्तमय होने के कारण - आपका ही तीर्थ - शासन सम्पूर्ण आपदाओं का अन्त करने वाला है और स्वयं निरंत है - अंतरहित अविनाशी है। तथा सर्वोदयरूप है - समस्त अभ्युदयों - आध्यात्मिक और भौतिक विभूतियों का कारण है। तथा सर्व प्राणियों के अभ्युदय - अभ्युत्थान का हेतु है। समन्तभद्र के इन वाक्यों से यह भले प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि वस्तुत: 'वीर-शासन' सर्वोदय तीर्थ कहलाने के योग्य है। उसमें वे विशेषताएँ एवं महत्तायें हैं, जो आज विश्व के लिए वीरशासन की देन कही जाती हैं या कही जा सकती हैं। यहाँ वे विशेषतायें भी कुछ निम्न प्रकार उल्लिखित हैं -

    वीरशासन की विशेषताएँ - 1.अहिंसावाद, 2.साम्यवाद, 3.स्याद्वाद और 4.कर्मवाद। इनके अलावा वीरशासन में और भी वाद हैं - आत्मवाद, ज्ञानवाद, चारित्रवाद, दर्शनवाद, प्रमाणवाद, नयवाद, परिग्रहपरिमाणवाद, प्रमेयवाद आदि। किन्तु उन सबका उल्लिखित चार वादों में ही प्राय: अन्तर्भाव हो जाता है। प्रमाणवाद और नयवाद के ही नामान्तर हैं और इनका तथा प्रमेयवाद का स्याद्वाद के साथ सम्बन्ध होने से स्याद्वाद में और बाकी का अहिंसावाद तथा साम्यवाद में अन्तर्भाव हो जाता है।

    1. अहिंसावाद - 'स्वयं जियो और जीने दो' की शिक्षा भगवान् महावीर ने इस अहिंसावाद द्वारा दी थी। जो परम आत्मा, परमब्रह्म, परमसुखी होना चाहता है उसे अहिंसा की उपासना करनी चाहिये - उसे अपने समान ही सबको देखना चाहिये - अपना अहिंसक आचरण बनाना चाहिये। मनुष्य में जब तक हिंसक वृत्ति रहती है तब तक आत्मगुणों का विकास नहीं हो पाता - वह दु:खी, अशान्त बना रहता है। अहिंसक का जीवमात्र मित्र बन जाता है - सर्व वैर का त्याग करके जातिविरोधी जीव भी उसके आश्रय में आपस में हिलमिल जाते हैं। क्रोध, दम्भ, द्वेष, गर्व, लोभ आदि ये सब हिंसा की वृत्तियाँ हैं। ये सच्चे अहिंसक के पास में नहीं फटक पाती हैं। अहिंसक को कभी भय नहीं होता, वह निर्भीकता के साथ उपस्थित परिस्थिति का सामना करता है, कायरता से कभी पलायन नहीं करता। अहिंसा कायरों का धर्म नहीं है वह तो वीरों का धर्म है। कायरता का हिंसा के साथ और वीरता का अहिंसा के साथ सम्बन्ध है। शारीरिक बल का नाम वीरता नहीं, आत्मबल का नाम वीरता है। जिसका जितना अधिक आत्मबल विकसित होगा वह उतना ही अधिक वीर और अहिंसक होगा। शारीरिक बल कदाचित् ही सफल होता देखा गया है, लेकिन सूखी हड्डियों वाले का भी आत्मबल विजयी और अमोघ रहा है।

    अत: अहिंसा पर कायरता का लांछन लगाना निराधार है। भगवान् महावीर ने वह अहिंसा दो प्रकार की वर्णित की है - 1. गृहस्थ की अहिंसा, 2. साधु की अहिंसा।

    गृहस्थ-अहिंसा - गृहस्थ चार तरह की हिंसाओं - आरम्भी, उद्योगी, विरोधी और संकल्पी में केवल संकल्पी हिंसा का त्यागी होता है, बाकी की तीन तरह की हिंसाओं का त्यागी वह नहीं होता। इसका मतलब यह नहीं है कि वह इन तीन तरह की हिंसाओं में असावधान बनकर प्रवृत्त रहता है, नहीं, आत्मरक्षा, जीवननिर्वाह आदि के लिये जितनी अनिवार्य हिंसा होगी वह उसे करेगा, फिर भी वह अपनी प्रवृत्ति हमेशा सावधानी से करेगा। उसका व्यवहार हमेशा नैतिक होगा। यही गृहस्थधर्म है, अन्य क्रियाएँ - आचरण तो इसी के पालन के दृष्टिबिन्दु हैं।

    साधु-अहिंसा - साधु की अहिंसा सब प्रकार की हिंसाओं के त्याग में से उदित होती है, उसकी अहिंसा में कोई विकल्प नहीं होता। वह अपने जीवन को सुवर्ण के समान निर्मल बनाने के लिए उपद्रवों, उपसर्गों को सहनशीलता के साथ सहन करता है। निन्दा करने वालों पर रुष्ट नहीं होता और स्तुति करने वालों पर प्रसन्न नहीं होता। वह सब पर साम्यवृत्ति रखता है। अपने को पूर्ण सावधान रखता है। तामसी और राजसी वृत्तियों से अपने आपको बचाये रखता है। मार्ग में चलेगा तो चार कदम जमीन देखकर चलेगा; जीव-जन्तुओं को बचाता हुआ चलेगा, हित-मित वचन बोलेगा, ज्यादा बकवाद नहीं करेगा। गरज यह कि जैन साधु अपनी तमाम प्रवृत्ति सावधानी से करता है। यह सब अहिंसा के लिए, अहिंसातत्त्व की उपासना के लिए, परमब्रह्म को प्राप्त करने के लिए, 'अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं' इस समन्तभद्रोक्त तत्त्व को हासिल करने के लिए। इस तरह जैन साधु अपने जीवन को पूर्ण अहिंसामय बनाता हुआ, अहिंसा की साधना करता हुआ, जीवन को अहिंसाजन्य अनुपम शांति प्रदान करता हुआ, विकारी पुद्गल से अपना नाता तोड़ता हुआ, कर्म-बन्धन को काटता हुआ, अहिंसा में ही - परमब्रह्म में ही - शाश्वतानन्द में ही - निमग्न हो जाता है - लीन हो जाता है - सदा के लिए - अनन्तकाल के लिए। फिर उसे संसार का चक्कर नहीं लगाना पड़ता। वह अजर, अमर, अविनाशी हो जाता है। सिद्ध एवं कृतकृत्य बन जाता है यह सब अहिंसा के द्वारा ही। वीर-शासन की जड़ - बुनियाद - आधार और विकास अहिंसा ही है।

    वर्तमान में जैन समाज इस अहिंसा-तत्त्व को कुछ भूल-सा गया है। इसीलिये जैनेतर लोग उसके बाह्याचार को देखकर 'जैनी अहिंसा', 'वीर अहिंसा' पर कायरता का कलंक मढ़ते हुए पाये जाते हैं। क्या ही अच्छा हो, जैनी लोग अपने व्यवहार से अहिंसा को व्यावहारिक धर्म बनाये रखने से सच्चे अर्थों में 'जैनी' बने, आत्मबल पुष्ट करें, साहसी और वीर बनें, जितेन्द्रिय होवें। उनकी अहिंसा केवल चिंवटी-खटमल, जूं आदि की रक्षा तक ही सीमित न हो, जिससे दूसरे लोग हमारे दम्भपूर्ण व्यवहार - निरा अहिंसा के व्यवहार को देखकर वीर प्रभु की महती देन - अहिंसा पर कलंक न मढ़ सकें।

    2. साम्यवाद - यह अहिंसा का ही अवान्तर सिद्धान्त है, लेकिन इस सिद्धान्त की हमारे जीवन में अहिंसा की ही भाँति अपनाये जाने की आवश्यकता होने से ‘अहिंसावाद' के समकक्ष इसकी गणना करना उपयुक्त है, क्योंकि भगवान् वीर के शासन में सबके साथ साम्य-भाव - सद्भावना के साथ व्यवहार करने का उपदेश है, अनुचित राग और द्वेष का त्यागना, दूसरों के साथ अन्याय तथा अत्याचार का बर्ताव नहीं करना, न्यायपूर्वक ही अपनी आजीविका सम्पादित करना, दूसरों के अधिकारों को हड़प नहीं करना, दूसरों की आजीविका पर नुकसान नहीं पहुँचाना, उनको अपने जैसा स्वतन्त्र और सुखी रहने का अधिकारी समझकर उनके साथ 'वसुधैव कुटुम्बकम्' - यथायोग्य भाईचारे का व्यवहार करना, उनके उत्कर्ष में सहायक होना, उनका कभी अपकर्ष नहीं सोचना, जीवनोपयोगी सामग्री को स्वयं उचित और आवश्यक रखना और दूसरों को रखने देना, संग्रह, लोलुपता, चूसने की वृत्ति का परित्याग करना ही ‘साम्यवाद' का लक्ष्य है - साम्यवाद की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। यदि आज विश्व में वीर प्रभु की यह साम्यवाद की शिक्षा प्रसृत हो जावे तो सारा विश्व सुखी और शांतिपूर्ण हो जाय।

    3. स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद - इसको जन्म देने का महान् श्रेय वीरशासन को ही है। प्रत्येक वस्तु के खरे और खोटे की जाँच 'अनेकान्त दृष्टि' - ‘स्याद्वाद' की कसौटी पर ही की जा सकती है। चूंकि वस्तु स्वयं अनेकान्तात्मक है उसको वैसा मानने में ही वस्तुतत्त्व की व्यवस्था होती है । स्याद्वाद के प्रभाव से वस्तु के स्वरूप-निर्णय में पूरा-पूरा प्रकाश प्राप्त होता है और सकल दुर्नयों एवं मिथ्या एकान्तों का अन्त हो जाता है तथा समन्वय का एक महानतम प्रशस्त मार्ग मिल जाता है। कुछ जैनेतर विचारकों ने स्याद्वाद को ठीक तरह से नहीं समझा। इसी से उन्होंने स्याद्वाद के खंडन में कुछ दूषण दिये हैं। शंकराचार्य ने 'एकस्मिन्नसंभवात्' द्वारा 'एक जगह दो विरोधी धर्म नहीं बन सकते हैं।' यह कहकर स्याद्वाद में विरोधदूषण दिया है। किन्हीं विद्वानों ने इसे संशयवाद, छलवाद कह दिया है, किन्तु विचारने पर इसमें इस प्रकार के कोई भी दूषण नहीं आते हैं। स्याद्वाद का प्रयोजन है यथावत् वस्तु तत्त्व का ज्ञान कराना, उसकी ठीक तरह से व्यवस्था करना, सब ओर से देखना और स्याद्वाद का अर्थ है कथंचित्वाद, दृष्टिवाद, अपेक्षावाद, सर्वथा एकान्त का त्याग, भिन्न-भिन्न पहलुओं से वस्तुस्वरूप का निरूपण, मुख्य और गौण की दृष्टि से पदार्थ का विचार'। स्याद्वाद में जो ‘स्यात्' शब्द है उसका अर्थ ही यही है कि किसी एक अपेक्षा से - सब प्रकार से नहीं - एक दृष्टि से - है। ‘स्यात्' शब्द का अर्थ 'शायद' नहीं है। देवराजव्यक्ति में अनेक सम्बन्ध विद्यमान हैं - किसी का वह मामा है तो किसी का भानजा, किसी का पिता है। तो किसी का पुत्र, इस तरह उसमें कई सम्बन्ध मौजूद हैं। मामा अपने भानजे की अपेक्षा, पिता अपने पुत्र की अपेक्षा, भानजा अपने मामा की अपेक्षा, पुत्र अपने पिता की अपेक्षा से है, इस प्रकार देवराज में पितृत्व, पुत्रत्व, मातुलत्व, स्वस्रीयत्व आदि धर्म निश्चित रूप ही हैं - संदिग्ध नहीं हैं और वे हर समय विद्यमान हैं। 'पिता' कहे जाने के समय पुत्रपना उनमें से भाग नहीं जाता है - सिर्फ गौण होकर रहता है। इसी तरह जब उनका भानजा उन्हें 'मामा-मामा' कहता है उस समय वे अपने मामा की अपेक्षा भानजे नहीं मिट जाते - उस समय भानजापना उनमें गौणमात्र होकर रहता है। स्याद्वाद इस तरह से वस्तुधर्मों की गुत्थियों को सुलझाता है - उनका यथावत् निश्चय कराता है? - स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की अपेक्षा से ही वस्तु 'सत्' - अस्तित्ववान् है और परद्रव्य क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से ही वस्तु 'असत्' - नास्तित्ववान् है आदि सात भङ्गों द्वारा ग्रहण करने योग्य और छोड़ने योग्य (गौण कर देने योग्य) पदार्थों का स्याद्वाद हस्तामलकवत् निर्णय करा देता है। संदेह या भ्रम को वह पैदा नहीं करता है। बल्कि स्याद्वाद का आश्रय लिये बिना वस्तुतत्त्व का यथातथ्य निर्णय हो ही नहीं सकता है। अतः स्याद्वाद को संदेहवाद समझना नितांत असाधारण भूल है। भिन्न दो अपेक्षाओं से विरोधी सरीखे दीख रहे (विरोधी नहीं) दो धर्मों के एक जगह रहने में कुछ भी विरोध नहीं है। जहाँ पुस्तक अपनी अपेक्षा अस्तित्वधर्मवाली है वहाँ अन्य पदार्थों की अपेक्षा नास्तित्वधर्मवाली भी है, पर-निषेध के बिना स्वस्वरूपास्तित्व प्रतिष्ठित नहीं हो सकता है। अत: यह स्पष्ट है कि स्याद्वाद में न विरोध है और न सन्देह जैसा अन्य कोई दूषण; वह तो वस्तुनिर्णय का - तत्त्वज्ञान का अद्वितीय अमोघ शस्त्र है, सबल साधन है। वस्तु चूँकि अनेक धर्मात्मक है और उसका व्यवस्थापक स्याद्वाद है इसलिये स्याद्वाद को ही अनेकान्तवाद भी कहते हैं। किन्तु 'अनेकान्त' और 'स्याद्वाद' में वाच्य-वाचक-सम्बन्ध है।

    4. कर्मवाद - कर्म जड़ है, पौगलिक है, उसका जीव के साथ अनादिकालिक सम्बन्ध है। कर्म की वजह से ही जीव पराधीन है और सुख-दु:ख का अनुभव करता है। वह कर्म से अनेक पर्यायों को धारण करके चतुर्गति संसार में घूमता है। कभी ऊँचा बन जाता है तो कभी नीचा, कभी दरिद्र होता है तो कभी अमीर, कभी मूर्ख होता है तो कभी विद्वान्, कभी अन्धा होता है तो कभी बहिरा, कभी लंगड़ा होता है तो कभी बौना, इस तरह शुभाशुभ कर्मों की बदौलत दुनिया के रंगमंच पर नट की तरह अनेक भेषों को धारण करता है - अनगिनत पर्यायों में उपजता और मरता है। यह सब कर्म की विडम्बना - कर्म की प्रपञ्चना है। वीरशासन में कर्म के मूल और उत्तर भेद और उनके भी भेदों का बहुत ही सुन्दर, सूक्ष्म, विशद विवेचन किया है। बंध, बंधक, बन्ध्य और बन्धनीय तत्त्वों पर गहरा विचार किया है। जीव कैसे और कब कर्मबंध करता है इन सभी बातों का चिंतन किया गया है। कर्मवाद से हमें शिक्षा मिलती है कि हम स्वयं ऊँचे उठ सकते हैं और स्वयं ही नीचे गिर सकते हैं।

    वीरशासन में जीवादि सात तत्त्वों, सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप मोक्षमार्ग और प्रमाण, नय, निक्षेप आदि उपायतत्त्वों का भी बहुत ही सम्बद्ध एवं संगत, विशद व्याख्यान किया गया है। प्रमाण के दो (प्रत्यक्ष और परोक्ष) भेद करके उन्हीं में अन्य सब प्रमाणों के अन्तर्भाव की विभावना कितने सुन्दर एवं युक्तिपूर्ण ढंग से की गई है, वह एक निष्पक्ष विचार को आकर्षित किये बिना नहीं रहती है। नयवाद तो जैन दर्शन की अन्यतम महत्त्वपूर्ण देन है। वस्तु के अंशज्ञान को नय कहते हैं। वे नय अनेक हैं। वस्तु के भिन्न-भिन्न अंशों को ग्रहण करने वाले नय ही हैं। ज्ञाता की हमेशा प्रमाण-दृष्टि नहीं रहती है। कभी उसका वस्तु के किसी खास धर्म को ही जानने का अभिप्राय होता है, उस समय उसकी नयदृष्टि होती है और इसीलिये ज्ञाता के अभिप्राय को जैन दर्शन में नय माना है। चूँकि वक्ता की वचन-प्रवृत्ति भी क्रमशः होती है - वचनों द्वारा वह एक अंश का ही प्रतिवचन कर सकता है। इसलिये वक्ता के वचन-व्यवहार को भी जैनदर्शन में 'नय' माना है। अतएव ज्ञानात्मक और वचनात्मकरूप से अथवा ज्ञानमय और शब्दनय के भेद से नय वर्णित हैं। इस तरह वीरशासन वैज्ञानिक एवं तात्त्विक शासन है। उसके अहिंसा, स्याद्वाद जैसे विश्वप्रिय सिद्धान्तों से उसकी उपयोगिता एवं आवश्यकता भी अधिक प्रकट होती है।

    वीरशासन के अनुयायी हम जैनों का परम कर्तव्य है कि भगवान् वीर के द्वारा उपदेशित उनके 'सर्वोदय तीर्थ' को विश्व में चमत्कृत करें और उनके पवित्र सिद्धान्तों का स्वयं ठीक तरह पालन करें तथा दूसरों को पालन करावें और उनके शासन का प्रसार करें।

    Edited by admin


    User Feedback

    Join the conversation

    You can post now and register later. If you have an account, sign in now to post with your account.

    Guest

×
×
  • Create New...