Jump to content
फॉलो करें Whatsapp चैनल : बैल आईकॉन भी दबाएँ ×
JainSamaj.World
  • भगवान् महावीर की क्षमा और अहिंसा का एक विश्लेषण

       (0 reviews)

    admin

    kshama.jpg

    शान्ति और सुख ऐसे जीवन-मूल्य हैं जिनकी चाह मानवमात्र को रहती है। अशान्ति और दु:ख किसी को भी इष्ट नहीं, ऐसा सभी का अनुभव है। अस्पताल के उस रोगी से पूछिए, जो किसी पीड़ा से कराह रहा है और डाक्टर से शीघ्र स्वस्थ होने के लिए कातर होकर याचना करता है। वह रोगी यही उत्तर देगा कि हम पीड़ा की उपशान्ति और चैन चाहते हैं। उस गरीब और दीन-हीन आदमी से प्रश्न करिए, जो अभावों से पीड़ित है। वह भी यही जवाब देगा कि हमें ये अभाव न सतायें और हम सुख से जिएँ। उस अमीर और साधनसम्पन्न व्यक्ति को भी टटोलिए, जो बाह्य साधनों से भरपूर होते हुए भी रात-दिन चिन्तित है। वह भी शान्ति और सुख की इच्छा व्यक्त करेगा। युद्धभूमि में लड़ रहे उस योद्धा से भी सवाल करिए, जो देश की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करने के लिए उद्यत है। उसका भी उत्तर यही मिलेगा कि वह अन्तरंग में शान्ति और सुख का इच्छुक है। इस तरह विभिन्न स्थितियों में फँसे व्यक्ति की आन्तरिक चाह शान्ति और सुख प्राप्ति की मिलेगी। वह मनुष्य में, चाहे वह किसी भी देश, किसी भी जाति और किसी भी वर्ग का हो, पायी जायेगी। इष्ट का संवेदन होने पर उसे शान्ति और सुख मिलता है तथा अनिष्ट का संवेदन उसके अशान्ति और दु:ख का परिचायक होता है।

    इस सर्वेक्षण से हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि मनुष्य के जीवन का मूल्य शान्ति और सुख है। यह बात उस समय और अधिक अनुभव में आ जाती है जब हम किसी युद्ध से विरत होते हैं या किसी भारी परेशानी से मुक्त होते हैं। दर्शन और सिद्धान्त ऐसे अनुभवों के आधार से ही निर्मित होते हैं और शाश्वत बन जाते हैं।

    जब मन में क्रोध की उदभूति होती है तो उसके भयंकर परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं। क्रुद्ध जर्मनी ने जब जापान युद्ध में उसके दो नगरों को बमों से ध्वंस कर दिया तो विश्व ने उसकी भर्त्सना की। फलत: सब ओर से शान्ति की चाह की गयी। क्रोध के विषैले कीटाणु केवल आस-पास के वातावरण और क्षेत्र को ही ध्वस्त नहीं करते, स्वयं क्रुद्ध का भी नाश कर देते हैं। हिटलर और मुसोलिनी के क्रोध ने उन्हें विश्व के चित्रपट से सदा के लिए अस्त कर दिया। दूर न जायें, पाकिस्तान ने जो क्रोधोन्माद का प्रदर्शन किया उससे उसके पूर्वी हिस्से को उसने हमेशा के लिए अलग कर दिया। व्यक्ति का क्रोध कभी-कभी भारी से भारी हानि पहुँचा देता है। इसके उदाहरण देने की जरूरत नहीं है। वह सर्वविदित है।

    क्षमा एक ऐसा अस्त्रबल है जो क्रोध के वार को निरर्थक ही नहीं करता, क्रोधी को नमित भी करा देता है। क्षमा से क्षमावान् की रक्षा होती है, उससे उनकी भी रक्षा होती है, जिन पर वह की जाती है। क्षमा वह सुगन्ध है जो आस-पास के वातावरण को महका देती है और धीरे-धीरे हरेक हृदय में वह बैठ जाती है। क्षमा भीतर से उपजती है, अतः उसमें भय का लेशमात्र भी अंश नहीं रहता। वह वीरों का बल है, कायरों का नहीं। कायर तो क्षण-क्षण में भीत और विजित होता रहता है। पर क्षमावान् निर्भय और विजयी होता है। वह ऐसी विजय प्राप्त करता है जो शत्रु को भी उसका बना देती है। क्षमावान् को क्रोध आता ही नहीं, उससे वह कोसों दूर रहता है। वास्तव में क्षमा - क्षमता - सहनशीलता मनुष्य का एक ऐसा गुण है जो दो नहीं, तीन नहीं हजारों, लाखों और करोड़ों मनुष्यों को जोड़ता है, उन्हें एक दूसरे के निकट लाता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसी विश्वसंस्था इसी के बल पर खड़ी हो सकी है और जब तक उसमें यह गुण रहेगा तब तक वह बना रहेगा।

    तीर्थंकर महावीर में यह गुण असीम था। फलतः उनके निकट जाति और प्रकृति विरोधी प्राणी - सर्प-नेवला, सिंह-गाय जैसे भी आपस के वैर-भाव को भूलकर आश्रय लेते थे, मनुष्यों का तो कहना हो क्या। उनकी दृष्टि में मनुष्यमात्र एक थे। हाँ, गुणों के विकास की अपेक्षा उनका दर्जा ऊँचा होता जाता था और अपना स्थान ग्रहण करता जाता था। जिनकी दृष्टि पूत हो जाती थी वे सम्यक्दृष्टि, जिनका दृष्टि के साथ ज्ञान पवित्र (असद्भावमुक्त) हो जाता था वे सम्यग्ज्ञानी और जिनका दृष्टि और ज्ञान के साथ आचरण भी पावन हो जाता था वे सम्यक्चारित्री कहे जाते थे और वैसा ही उन्हें मान-सम्मान मिलता था। क्षमा यथार्थ में अहिंसा की ही एक प्रकाशपूर्ण किरण है, जिससे अन्तरतम सु-आलोकित हो जाता है। अहिंसक प्रथमत: आत्मा और मन को बलिष्ठ बनाने के लिए इस क्षमा को भीतर से विकसित करता, गाढ़ा बनाता और उन्नत करता है। क्षमा के उन्नत होने पर उसकी रक्षा के लिए हृदय में कोमलता, सरलता और निर्भीकवृत्ति की बाड़ी (वृक्षावलि) रोपता है। अहिंसा को ही सर्वांगपूर्ण बनाने के लिए सत्य, अचौर्य, शील और अपरिग्रह की निर्मल एवं उदात्त वृत्तियों का भी वह अहर्निश आचरण करता है।

    सामान्यतया अहिंसा उसे कहा जाता है जो किसी प्राणी को न मारा जाय। परन्तु यह अहिंसा की बहुत स्थूल परिभाषा है। तीर्थंकर महावीर ने अहिंसा उसे बतलाया जिसमें किसी प्राणी को मारने का न मन में विचार आये, न वाणी से कुछ कहा जाय और न हाथ आदि की क्रियाएँ की जाये। तात्पर्य यह कि हिंसा के विचार, हिंसा के वचन और हिंसा के प्रयत्न न करना अहिंसा है। यही कारण है कि एक व्यक्ति हिंसा का विचार न रखता हुआ ऐसे वचन बोल देता है या उनकी क्रिया हो जाती है जिससे किसी जीव की हिंसा सम्भव है तो उसे हिंसक नहीं माना गया है। प्रमत्तयोग-कषाय से होनेवाला प्राणव्यपरोपण ही हिंसा है। हिंसा और अहिंसा वस्तुतः व्यक्ति के भावों पर निर्भर हैं। व्यक्ति के भाव हिंसा के हैं। तो वह हिंसक है और यदि उसके भाव हिंसा के नहीं हैं तो वह अहिंसक है। इस विषय में हमें वह मछुआ और कृषक ध्यातव्य है जो जलाशय में जाल फैलाये बैठा है और प्रतिक्षण मछली-ग्रहण का भाव रखता है, पर मछली पकड़ में नहीं आती तथा जो खेत जोतकर अन्न उपजाता है और किसी जीव के घात का भाव नहीं रखता, पर अनेक जीव खेत जोतने से मरते हैं। वास्तव में मछुआ के क्षणक्षण के परिणाम हिंसा के होने से वह हिंसक कहा जाता है और कृषक के भाव हिंसा के न होकर अन्न उपजाने के होने से वह अहिंसक माना जाता है। महावीर ने हिंसा-अहिंसा को भावप्रधान बतलाकर उसकी सामान्य परिभाषा से कुछ ऊँचे उठकर उक्त सूक्ष्म परिभाषाएँ प्रस्तुत की। ये परिभाषायें ऐसी हैं जो हमें पाप और वंचना से बचाती हैं तथा तथ्य को स्पर्श करती हैं।

    अहिंसक खेती कर सकता है, व्यापार-धंधे कर सकता है और जीवन-रक्षा तथा देश-रक्षा के लिए शस्त्र भी उठा सकता है, क्योंकि उसका भाव आत्मरक्षा का है, आक्रमण का नहीं। यदि वह आक्रमण होने पर उसे सह लेता है तो उसकी वह अहिंसा नहीं है, कायरता है। कायरता से वह आक्रमण सहता है और कायरता में भय आ ही जाता है तथा भय हिंसा का ही एक भेद है। वह परघात न करते हुए भी स्वघात करता है। अत: महावीर ने अहिंसा की बारीकी को न केवल स्वयं समझा और आचरित किया, अपितु उसे उस रूप में ही आचरण करने का दूसरों को भी उन्होंने उपदेश दिया।

    यदि आज का मनुष्य मनुष्य से प्रेम करना चाहता है और मानवता की रक्षा करना चाहता है तो उसे महावीर की इन सूक्ष्म क्षमा और अहिंसा को अपनाना ही पड़ेगा। यह सम्भव नहीं कि बाहर से हम मनुष्य-प्रेम की दुहाई दें और भीतर से कटार चलाते रहें। मनुष्य-प्रेम के लिए अन्तस् और बाहर दोनों में एक होना चाहिए। कदाचित् हम बाहर प्रेम का प्रदर्शन न करें, तो न करें, किन्तु अन्त में तो वह अवश्य हो, तभी विश्वमानवता जी सकती है और उसके जीने पर अन्य शक्तियों पर भी करुणा के भाव विकसित हो सकते हैं।

    क्षमा और अहिंसा ऐसे उच्च सद्भावपूर्ण आचरण हैं जिनके होते ही समाज में, देश में, विश्व में और जन-जन में प्रेम और करुणा के अंकुर उगकर फूलफल सकते हैं तथा सबको सुखी बना सकते हैं।


    User Feedback

    Join the conversation

    You can post now and register later. If you have an account, sign in now to post with your account.

    Guest

×
×
  • Create New...