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  • महावीर की धर्म देशना

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    महावीर का जन्म। आज से लगभग 2600 वर्ष पहले लोकवन्द्य महावीर ने विश्व के लिए स्पृहणीय भारतवर्ष के अत्यन्त रमणीक पुण्य-प्रदेश विदेह देश (बिहार प्रान्त) के कुण्डपुर नगर में जन्म लिया था। 'कुण्डपुर' विदेह की राजधानी वैशाली (वर्तमान वसाढ़) के निकट बसा हुआ था और उस समय एक सुन्दर एवं स्वतन्त्र गणसत्तात्मक राज्य के रूप में अवस्थित था। इसके शासक सिद्धार्थ नरेश थे, जो लिच्छवी ज्ञातृवंशी थे और बड़े न्याय-नीति-कुशल एवं प्रजावत्सल थे। इनकी शासन-व्यवस्था अहिंसा और गणतंत्र (प्रजातंत्र) के सिद्धान्तों के आधार पर चलती थी। ये उस समय के नौ लिच्छवि (वज्जि) गणों में एक थे और उनमें इनका अच्छा सम्मान तथा आदर था। सिद्धार्थ भी उन्हें इसी तरह सम्मान देते थे। इसी से लिच्छवी गणों के बारे में उनके पारस्परिक प्रेम और संगठन को बतलाते हुए बौद्धों के दीघनिकाय-अट्ठकथा आदि प्राचीन ग्रन्थों में कहा गया है कि यदि कोई लिच्छवि बीमार होता तो सब लिच्छवि उसे देखने आते, एक के घर उत्सव होता तो उसमें सब सम्मिलित होते तथा यदि उनके नगर में कोई साधु-सन्त आता तो उसका स्वागत करते थे। इससे मालूम होता है कि अहिंसा के परम पुजारी नृप सिद्धार्थ के सूक्ष्म अहिंसक आचरण का कितना अधिक प्रभाव था? जो साथी नरेश जैन धर्म के उपासक नहीं थे वे भी सिद्धार्थ की अहिंसा-नीति का समर्थन करते थे और परस्पर भ्रातृत्वपूर्ण समानता का आदर्श उपस्थित करते थे। 

     

    सिद्धार्थ के इन्हीं समभाव, प्रेम, संगठन, प्रभावादि गुणों से आकृष्ट होकर वैशाली के (जो विदेह देश की तत्कालीन सुन्दर राजधानी तथा लिच्छवि नरेशों के प्रजातंत्र की प्रवृत्तियों की केन्द्र एवं गौरवपूर्ण नगरी थी) प्रभावशाली नरेश चेटक ने अपनी गुणवती राजकुमारी त्रिशला का विवाह उनके साथ कर दिया था। त्रिशला चेटक को सबसे प्यारी पुत्री थी, इसलिए चेटक उन्हें 'प्रियकारिणी' भी कहा करते थे। त्रिशला अपने प्रभावशाली सुयोग्य पिता की सुयोग्य पुत्री होने के कारण पैतृक गुणों से सम्पन्न तथा उदारता, दया, विनय, शीलादि गुणों से भी युक्त थी। इसी भाग्यशाली दम्पति - त्रिशला और सिद्धार्थ - को लोकवन्द्य महावीर को जन्म देने का अचिन्त्य सौभाग्य प्राप्त हुआ। जिस दिन महावीर का जन्म हुआ वह चैत सुदी तेरस का पावन दिवस था।

    महावीर के जन्म लेते ही सिद्धार्थ और उनके परिवार ने पुत्र-जन्म के उपलक्ष्य में खूब खुशियाँ मनाईं। गरीबों को भरपूर धन-धान्य आदि दिया और सबकी मनोकामनाएँ पूरी कीं तथा तरह-तरह के गायन वादित्रादि करवाये। सिद्धार्थ के कुटुम्बीजनों, समशील मित्र नरेशों, रिश्तेदारों और प्रजाजनों ने भी उन्हें बधाइयाँ भेजीं, खुशियाँ मनाईं और याचकों को दानादि दिया।

    महावीर बाल्यावस्था में ही विशिष्ट ज्ञानवान् और अद्वितीय बुद्धिमान् थे। बड़ी से बड़ी शंका का समाधान कर देते थे। साधु-सन्त भी अपनी शंकाएँ पूछने आते थे। इसीलिए लोगों ने उन्हें सन्मति कहना शुरू कर दिया और इस तरह वर्धमान का लोक में एक 'सन्मति' नाम भी प्रसिद्ध हो गया। वह बड़े वीर भी थे। भयंकर आपदाओं से भी नहीं घबड़ाते थे, किन्तु उनका साहसपूर्वक सामना करते थे। अतः उनके साथी उन्हें वीर और अतिवीर भी कहते थे।

    महावीर का वैराग्य - महावीर इस तरह बाल्यावस्था को अतिक्रान्त कर धीरे-धीरे कुमारावस्था को प्राप्त हुए और कुमारावस्था को भी छोड़कर वे पूरे 30 वर्ष के युवा हो गये। अब उनके माता-पिता ने उनके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। किंतु महावीर तो महावीर ही थे। उस समय जनसाधारण की जो दुर्दशा थी उसे देखकर उन्हें असह्य पीड़ा हो रही थी। उस समय की अज्ञानमय स्थिति को देखकर उसकी आत्मा सिहर उठी थी और हृदय दया से भर आया था। अतएव उनके हृदय में पूर्ण रूप से वैराग्य समा चुका था। उन्होंने सोचा - इस समय देश की स्थिति धार्मिक दृष्टि से बड़ी खराब है, धर्म के नाम पर अधर्म हो रहा है। जहाँ देखो वहाँ हिंसा का बोलबाला और भीषण काण्ड मचा हुआ है। सारी पृथ्वी खून से लथपथ हो रही है। इसके अतिरिक्त स्त्री के साथ इस समय जो दुर्व्यवहार हो रहा है वह भी चरमसीमा पर पहुँच चुका है। उसे ज्ञान से वंचित रखा जा रहा है। शूद्र के साथ संभाषण, उसका अन्नभक्षण और उसके साथ सभी प्रकार का व्यवहार बन्द कर रखा है और यदि कोई करता है तो उसे कड़े-से-कड़ा दण्ड भोगना पड़ता है। यदि किसी से अज्ञानतावश या भूल से कोई अपराध बन गया तो उसे जाति, धर्म और तमाम उत्तम बातों से च्युत करके बहिष्कृत कर दिया जाता है - उनके उद्धार का कोई रास्ता ही नहीं है। यह भी नहीं सोचा जाता कि मनुष्य मनुष्य है, देवता नहीं। उससे गलतियाँ हो सकती हैं और उनका सुधार भी हो सकता है।

    महावीर इस अज्ञानमय स्थिति को देखकर खिन्न हो उठे, उनकी आत्मा सिहर उठी और हृदय दया से भर आया। वे सोचने लगे कि यदि यह स्थिति कुछ। समय और रही तो अहिंसक और आध्यात्मिक ऋषियों की यह पवित्र भारतभूमि नरककुण्ड बन जायगी और मानव दानव हो जायगा। जिस भारत भूमि के मस्तक को ऋषभदेव, राम और अरिष्टनेमि जैसे अहिंसक महापुरुषों ने ऊँचा किया और अपने कार्यों से उसे पावन बनाया, उसके माथे पर हिंसा का वह भीषण कलंक लगेगा जो धुल न सकेगा। इस हिंसा और जड़ता को शीघ्र ही दूर करना चाहिए। यद्यपि राजकीय दण्ड-विधान - आदेश से यह बहुत कुछ दूर हो सकती है, पर उसका असर लोगों के शरीर पर ही पड़ेगा - हृदय एवं आत्मा पर नहीं। आत्मा पर असर डालने के लिए तो अन्दर की आवाज - उपदेश ही होना चाहिए और वह उपदेश पूर्ण सफल एवं कल्याणप्रद तभी हो सकता है जब मैं स्वयं पूर्ण अहिंसा की प्रतिष्ठा कर लें। इसलिए अब मेरा घर में रहना किसी भी प्रकार उचित नहीं है। घर में रहकर सुखोपभोग करना और अहिंसा की पूर्ण साधना करना दोनों बातें सम्भव नहीं हैं। यह सोचकर उन्होंने घर छोड़ने का निश्चय कर लिया।

    उनके इस निश्चय को जानकर माता त्रिशला, पिता सिद्धार्थ और सभी प्रियजन अवाक् रह गये, परन्तु उनकी दृढ़ता को देखकर उन्हें संसार के कल्याण के मार्ग से रोकना उचित नहीं समझा और सबने उन्हें इसके लिए अनुमति दे दी। संसार-भीरु सभ्यजनों ने भी उनके इस लोकोत्तर कार्य की प्रशंसा की और गुणानुवाद किया।

    महावीर की निर्ग्रन्थ-दीक्षा - राजकुमार महावीर सब तरह के सुखों और राज्य का त्याग कर निर्ग्रन्थअचेल हो वन-वन में, पहाड़ों की गुफाओं और वृक्षों की कोटरों में समाधि लगाकर अहिंसा की साधना करने लगे। काम-क्रोध, राग-द्वेष, मोह-माया, छल ईर्ष्य आदि आत्मा के अन्तरंग शत्रुओं पर विजय पाने लगे। वे जो कायक्लेशादि बाह्य तप तपते थे वह अन्तरंग की ज्ञानादि शक्तियों को विकसित व पुष्ट करने के लिए करते थे। उन पर जो विघ्न-बाधाएँ और उपसर्ग आते थे उन्हें वे वीरता के साथ सहते थे। इस प्रकार लगातार बारह वर्ष तक मौनपूर्वक तपश्चरण करने के पश्चात् उन्होंने कर्मकलंक को नाशकर अर्हत अर्थात् ‘जीवन्मुक्त' अवस्था प्राप्त की। आत्मा के विकास की सबसे ऊँची अवस्था संसार दशा में यही 'अर्हत् अवस्था' है जो लोकपूज्य और लोक के लिए स्पृहणीय है। बौद्धग्रन्थों में इसी को 'अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध' कहा है।

    उनका उपदेश - इस प्रकार महावीर ने अपने उद्देश्यानुसार आत्मा में अहिंसा की पूर्ण प्रतिष्ठा कर ली, समस्त जीवों पर उनका समभाव हो गया - उनकी दृष्टि में न कोई शत्रु रहा और न कोई मित्र। सर्प-नेवला, सिंह-गाय जैसे जाति-विरोधी जीव भी उनके सान्निध्य में आकर अपने वैर-विरोध को भूल गये। वातावरण में अपूर्व शान्ति आ गई। महावीर के इस स्वाभाविक आत्मिक प्रभाव से आकृष्ट होकर लोग स्वयमेव उनके पास आने लगे। महावीर ने उचित अवसर और समय देखकर लोगों को अहिंसा का उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया। 'अहिंसा परमोधर्म:' कह कर अहिंसा को परमधर्म और हिंसा को अधर्म बतलाया। यज्ञों में होने वाली पशुबलि को अधर्म कहा और उसका अनुभव तथा युक्तियों द्वारा तीव्र विरोध किया। जगह-जगह जाकर विशाल सभाएँ करके उसकी बुराइयाँ बतलाईं और अहिंसा के अपरिमित लाभ बतलाये। इस तरह लगातार तीस वर्ष तक उन्होंने अहिंसा का प्रभावशाली प्रचार किया। प्रत्येक योग्य प्राणी धर्म धारण कर सकता है और अपने आत्मा का कल्याण कर सकता है' इस उदार घोषणा के साथ उन्हें ऊँचे उठ सकने का आश्वासन, बल और साहस दिया। महावीर के संघ में पापी से पापी भी सम्मिलित हो सकते थे और उन्हें धर्म-धारण की अनुज्ञा थी। उनका स्पष्ट उपदेश था कि 'पाप से घृणा करो, पापी से नहीं' और इसीलिए उनके संघ का उस समय जो विशाल रूप था वह तत्कालीन अन्य संघों में कम मिलता था। ज्येष्ठा और अंजनचोर जैसे पापियों का उद्धार महावीर के उदार धर्म ने ही किया था। इन्हीं सब बातों से महान् आचार्य स्वामी समन्तभद्र ने महावीर के शासन (तीर्थ-धर्म) को 'सर्वोदय तीर्थ' सबका उदय करने वाला कहा है। उनके धर्म की यह सबसे बड़ी विशेषता है। महावीर ने अपने उपदेशों में जिन तत्त्वज्ञानपूर्ण सिद्धान्तों का प्रतिपादन एवं प्रकाशन किया उन पर कुछ प्रकाश डालना आवश्यक है -

    1. सर्वज्ञ ( परमात्म ) वाद - जहाँ अन्य धर्मों में जीव को सदैव ईश्वर का दास रहना बतलाया गया है वहाँ जैन धर्म का मन्तव्य है कि प्रत्येक योग्य आत्मा अपने अध्यवसाय एवं प्रयत्नों द्वारा स्वतंत्र, पूर्ण एवं ईश्वर - सर्वज्ञ परमात्मा बन सकता है। जैसे एक छह वर्ष का विद्यार्थी 'अ आ इ सीखता हुआ एक-एक दर्जे को पास करके एम. ए. और डॉक्टर बन जाता है और छह वर्ष के अल्प ज्ञान को सहस्रों गुना विकसित कर लेता है, उसी प्रकार साधारण आत्मा भी दोषों और आवरणों को दूर करता हुआ महात्मा तथा परमात्मा बन जाता है। कुछ दोषों और आवरणों को दूर करने से महात्मा और सर्व दोषों तथा आवरणों को दूर करने से परमात्मा कहलाता है। अतएव जैनधर्म में गुणों की अपेक्षा पूर्ण विकसित आत्मा ही परमात्मा है, सर्वज्ञ एवं ईश्वर है - उससे जुदा एकरूप कोई ईश्वर नहीं है। यथार्थतः गुणों की अपेक्षा जैनधर्म में ईश्वर और जीव में कोई भेद नहीं है। यदि भेद है तो वह यही कि जीव कर्म-बन्धन-युक्त है और ईश्वर कर्म-बन्धन-मुक्त है। पर कर्म-बन्धन के दूर हो जाने पर वह भी ईश्वर हो जाता है। इस तरह जैनधर्म में अनन्त ईश्वर हैं। हम व आप भी कर्म-बन्धन से मुक्त हो जाने पर ईश्वर (सर्वज्ञ) बन सकते हैं। पूजा, उपासनादि जैनधर्म में मुक्त न होने तक ही बतलाई है। उसके बाद वह और ईश्वर सब स्वतन्त्र व समान हैं और अनन्त गुणों के भण्डार हैं। यही सर्वज्ञवाद अथवा परमात्मवाद है जो सबसे निराला है। त्रिपिटिकों (मज्झिमनिकाय अनु. पृ. 57 आदि) में महावीर (निग्गंठनातपुत्त) को बुद्ध और उनके आनन्द आदि शिष्यों ने 'सर्वज्ञ सर्वदर्शी निरन्तर समस्त ज्ञान दर्शनवाला कहकर अनेक जगह उल्लेखित किया है।

    2. रत्नत्रय धर्म - जीव परमात्मा कैसे बन सकता है, इस बात को भी जैनधर्म में बतलाया गया है। जो जीव सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय धर्म को धारण करता है वह संसार के दु:खों से मुक्त परमात्मा हो जाता है।

    (क) सम्यक्दर्शन - मूढ़ता और अभिमान रहित होकर यथार्थ (निर्दोष) देव (परमात्मा), यथार्थ वचन और यथार्थ महात्मा को मानना और उनपर ही अपना विश्वास करना।

    ( ख ) सम्यक्ज्ञान - न कम, न ज्यादा, यथार्थ, सन्देह और विपर्यय रहित तत्त्व का ज्ञान करना।

    (ग) सम्यक्चारित्र - हिंसा न करना, झूठ न बोलना, पर-वस्तु को बिना दिये ग्रहण न करना, ब्रह्मचर्यपूर्वक रहना अपरिग्रही होना। गृहस्थ इनका पालन एकदेश और निर्ग्रन्थ साधु पूर्णत: करते हैं।

    3. सप्त तत्त्व - जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष - ये सात तत्त्व (वस्तुभूत पदार्थ) हैं। जो चेतना (जानने-देखने के) गुण से युक्त है वह जीवतत्त्व है। जो चेतनायुक्त नहीं है वह अजीवतत्त्व है। इसके पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - ये पाँच भेद हैं। जिन कारणों से जीव और पुद्गल का संबंध होता है वे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग आस्रवतत्त्व हैं। दूध-पानी की तरह जीव और पुद्गल का जो गाढ सम्बन्ध है वह बन्धतत्त्व है। अनागत बन्ध का न होना संवरतत्त्व है और संचित पूर्व बन्ध का छूट जाना निर्जरा है और सम्पूर्ण कर्मबन्धन से रहित हो जाना मोक्ष है। मुमुक्षु और संसारी दोनों के लिए इन तत्त्वों का ज्ञान करना आवश्यक है।

    4. कर्म - जो जीव को पराधीन बनाता है, उसकी स्वतंत्रता में बाधक है। वह कर्म है। इस कर्म की वजह से ही जीवात्मा नाना योनियों में भ्रमण करता है। इसके ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय - ये आठ भेद हैं। इनके भी उत्तर भेद अनेक हैं।

    5. अनेकान्त और स्याद्वाद - जैन धर्म को ठीक तरह समझने-समझाने और मीमांसा करने-कराने के लिए महावीर ने जैनधर्म के साथ ही जैन दर्शन का भी प्ररूपण किया। 

    (क) अनेकान्त - नाना धर्मरूप वस्तु अनेकान्त है।

    (ख) स्याद्वाद - अपेक्षा से नाना धर्मों को कहने वाले वचन प्रकार को स्याद्वाद कहते हैं। अपेक्षावाद, कथंचित्वाद आदि इसी के नाम हैं। 

    इनका और ऐसे ही और अनेक सिद्धान्तों का महावीर ने प्रतिपादन किया था, जो जैन शास्त्रों से ज्ञातव्य हैं।

    अन्त में 72 वर्ष की आयु में कार्तिक वदी अमावस्या के प्रात: महावीर ने पावा से निर्वाण प्राप्त किया, जिसकी स्मृति में जैन-समाज में वीर-निर्वाण संवत् प्रचलित है और जो आज 2544 चल रहा है।

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