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  • महावीर का आचार धर्म

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    महावीर और तत्कालीन स्थिति - लोक में महापुरुषों का जन्म जन-जीवन को ऊँचा उठाने और उनका हित करने के लिए होता है। भगवान् महावीर ऐसे ही महापुरुष थे। उनमें लोककल्याण की तीव्र भावना, असाधारण प्रतिभा, अद्वितीय तेज और अनुपम आत्मबल था। बचपन से ही उनमें अलौकिक धार्मिक भाव और सर्वोदय की सातिशय लगन होने के नेतृत्व, लोकप्रियता और अद्दभुत संगठन के गुण विकसित होने लगे थे। भौतिकता के प्रति उनकी न आसक्ति थी और न आस्था। उनका विश्वास आत्मा के केवल अमरत्व में ही नहीं, किन्तु उसके पूर्ण विकसित रूप परमात्मत्व में भी था। अतएव वे इन्द्रिय-विषयों को तापकृत् और तृष्णाभिवर्द्धक मानते थे। एक लोकपूज्य एवं सर्वमान्य ज्ञातृवंशी क्षत्रिय घराने में उत्पन्न होकर और वहाँ सभी सामग्रियों के सुलभ होने पर भी वे राजमहलों में तीस वर्ष तक 'जल में भिन्न कमल' की भाँति अथवा गीता के शब्दों में स्थितप्रज्ञ' की तरह रहे, पर उन्हें कोई इन्द्रिय-विषय लुभा न सका। उनकी आँखों से बाह्य स्थिति भी ओझल न थी। राजनैतिक स्थिति यद्यपि उस समय बहुत ही सुदृढ़ और आदर्श थी। नौ लिच्छिवियों का संयुक्त एवं संगठित शासन था और वे बड़े प्रेम एवं सहयोग से अपने गणराज्य का संचालन करते थे। राजा चेटक इस गणराज्य के सुयोग्य अध्यक्ष थे और वैशाली उनकी राजधानी थी। वैशाली राजनैतिक हलचलों तथा लिच्छवियों की प्रवृत्तियों की केन्द्र थी; पर सबसे बड़ी जो न्यूनता थी वह यह थी कि शासन समाज और धर्म के मामले में मौन था - उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। फलत: सामाजिक और धार्मिक पतन पराकाष्ठा को पहुँच चुका था तथा दोनों की दशा अत्यन्त विरूप धारण कर चुकी थी। छुआछूत, जातीयता और ऊँच-नीच के भेद ने समाज तथा धर्म की जड़ों को खोखला एवं जर्जरित बना दिया था। अज्ञान, मिथ्यात्व, पाखण्ड और अधर्म ने अपना डेरा डाल रखा था। इस बाह्य स्थिति ने भी भगवान् महावीर की आँखों को अद्दभुत प्रकाश दिया और वे तीस वर्ष की भरी जवानी में ही समस्त वैषयिक सुखोपभोगों को त्यागकर और उनसे विरक्ति धारण कर साधु बन गये थे। उन्होंने अनुभव किया। था कि गृहस्थ या राजा के पद की अपेक्षा साधु का पद अत्यन्त उन्नत है और इस पद में ही तप, त्याग तथा संयम की उच्चाराधना की जा सकती है और आत्मा को ‘परमात्मा' बनाया जा सकता है। फलस्वरूप उन्होंने बारह वर्ष तक कठोर तप और संयम की आराधना करके अपने चरम लक्ष्य वीतराग-सर्वज्ञत्व अथवा परमात्मत्व की शुद्ध एवं परमोच्च अवस्था को प्राप्त किया था।

    महावीर द्वारा आचार धर्म की प्रतिष्ठा - उन्होंने जिस 'सुपथ' पर चलकर इतनी उन्नति की और असीम ज्ञान एवं अक्षय आनन्द को प्राप्त किया, उस ‘सुपथ' को जनकल्याण के लिए भी उन्होंने उसी तरह प्रदर्शित किया, जिस तरह सद्वैद्य बड़े परिश्रम और कठोर साधना से प्राप्त अपने अनुपम चिकित्सा-ज्ञान द्वारा करुणा-बुद्धि से रोग-पीड़ित लोगों का रोगोपशमन करता है और उन्हें जीवन-दान देता है। महावीर के 'आचार-धर्म' पर चलकर प्रत्येक व्यक्ति लौकिक और पारलौकिक दोनों ही प्रकार के हितों को कर सकता है। आज के इस चाकचिक्य एवं भौतिकता-प्रिय जगत् में उनके 'आचार-धर्म' के आचरण की बड़ी आवश्यकता है। महाभारत के एक उपाख्यान में निम्न श्लोक आया है -


    जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः, जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः। 

    केनापि देवेन हृदि स्थितेन, यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।।

    मैं धर्म को जानता हूँ , पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को भी जानता हूँ, लेकिन उससे निवृत्ति नहीं। हृदय में स्थित कोई देव जैसी मुझे प्रेरणा करता है, वैसा करता हूँ। यथार्थतः यही स्थिति आज अमनीषी और मनीषी दोनों की हो रही है। बाह्य में वे भले ही धर्मात्मा हों, पर अन्तस् प्रायः सभी का तमोव्याप्त है। परिणाम यह हो रहा है कि प्रत्येक व्यक्ति की नैतिक और आध्यात्मिक चेतना शून्य होती जा रही है और भौतिक चेतना एवं वैषयिक इच्छाएँ बढ़ती जा रही हैं। यदि यही भयावह दशा रही तो मानव-समाज में न नैतिकता रहेगी और न आध्यात्मिकता तथा न वैसे व्यक्तियों का सद्भाव कहीं मिलेगा। अतः इस भौतिकता के युग में भगवान् महावीर का 'अचारधर्म' विश्व के मानव समाज को बहुत कुछ आलोक दे सकता है - आध्यात्मिक एवं नैतिक मार्गदर्शन कर सकता है। उसके आचरण से मानव नियत मर्यादा में रहता हुआ ऐन्द्रियिक विषयों को भोग सकता है और जीवन को नैतिक तथा आध्यात्मिक बनाकर उसे सुखी, यशस्वी और सब सुविधाओं से सम्पन्न भी बना सकता है। दूसरों को भी शान्ति और सुख प्रदान कर सकता है। अहिंसक व्यवहार की आवश्यकता मानव-समाज सुख और शान्ति से रहे, इसके लिए महावीर ने अहिंसा धर्म का उपदेश दिया। उन्होंने बताया कि दूसरों को सुखी देखकर सुखी होना और दु:खी देखकर दु:खी होना ही पारस्परिक प्रेम का एकमात्र साधन है। प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह किसी भी मनुष्य, पशु या पक्षी, यहाँ तक कि छोटे-से- छोटे जन्तु, कीट, पतंग आदि को भी न सताये। प्रत्येक जीव सुख चाहता है और दु:ख से बचना चाहता है। इसका शक्य उपाय यही है कि वह स्वयं अपने प्रयत्न से दूसरों को दु:खी न करे और सम्भव हो तो उन्हें सुखी बनाने की ही चेष्टा करे। ऐसा करने पर वह सहज में सुखी हो सकता है। अत: पारस्परिक अहिंसक व्यवहार ही सुख का सबसे बड़ा और प्रधान साधन है। इस अहिंसक व्यवहार को स्थायी बनाये रखने के लिए उसके चार उपसाधन हैं -

    1.पहला यह कि किसी को धोखा न दिया जाय, जिससे जो कहा हो, उसे पूरा किया जाय। ऐसे शब्दों का भी प्रयोग न किया जाय, जिससे दूसरों को मार्मिक पीड़ा पहुँचे। जैसे अन्धे को अन्धा कहना या काणे को काणा कहना सत्य है, पर उन्हें पीड़ाजनक है। 

    2. दसरा उपसाधन यह है कि प्रत्येक मनुष्य अपने परिश्रम और न्याय से उपार्जित द्रव्य पर ही अपना अधिकार माने। जिस वस्तु का वह स्वामी नहीं है। और न उसे अपने तथा न्याय से अर्जित किया है उसका वह स्वामी न बने। यदि कोई व्यवसायी व्यक्ति उत्पादक और परिश्रमशील प्रजा का न्याययुक्त भाग हड़पता है तो वह व्यवसायी नहीं। व्यवसायी वह है जो न्याय से द्रव्य का अर्जन करता है। छल फरेब, धोखाधड़ी या जोरजबर्दस्ती से नहीं। अन्यथा वह प्रजा की अशान्ति तथा कलह का कारण बन जायगा। अतः न्यायविरुद्ध द्रव्य का अर्जन दुख तथा संक्लेश का बीज है, उसे नहीं करना चाहिए।

    3. तीसरा यह है कि प्रत्येक व्यक्ति (स्त्री-पुरुष) को भोगों में आसक्त नहीं होना चाहिए। भोगों में आसक्त व्यक्ति अपना तथा दूसरों का अहित करता है। वह न केवल अपना स्वास्थ्य ही नष्ट करता है, अपितु ज्ञान, विवेक, त्याग, पवित्रता, उच्चकुलीनता आदि कितने ही सद्दगुणों  का भी नाश करता है और भावी सन्तान को निर्बल बनाता है तथा समाज में दुराचार एवं दुर्बलता को प्रश्रय देता है। अतः प्रत्येक पुरुष को अपनी पत्नी के साथ और प्रत्येक स्त्री को अपने पति के साथ संयमित जीवन बिताना चाहिए।

    4. चौथा यह है कि संचयवृत्ति को सीमित करना चाहिए, क्योंकि आवश्यकता से अधिक संग्रह करने से मनुष्य की तृष्णा बढ़ती है तथा समाज में असन्तोष फैलता है। यदि वस्तुओं का अनुचित रीति से संग्रह न किया जाय और प्राप्त पर सन्तोष रखा जाय तो दूसरों को जीवन निर्वाह के साधनों की कमी नहीं पड़ सकती।

    इस तरह अहिंसा को जीवन में लाने के लिए सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहपरिमाण - इन चार नियमों का पालन करना आवश्यक है। उनके बिना अहिंसा पल नहीं सकती - पूर्णरूप में वह जीवन में नहीं आ सकती। यही पाँच व्रत भगवान् महावीर के आचार-धर्म हैं।

    आचार-धर्म का मूलाधार : अहिंसा - ऊपर देख चुके हैं कि इस आचार-धर्म का मूलाधार 'अहिंसा' है, शेष चार व्रत तो उसी तरह उसके रक्षक हैं जिस तरह खेती की रक्षा के लिए बाढ़ (वारी) लगा दी जाती है। यह देखा जाता है कि गलत बात कहने, कटु बोलने, असंगत कहने और अधिक बोलने से न केवल हानि ही उठानी पड़ती है किन्तु कलुषता, अविश्वास और कलह भी उत्पन्न हो जाते हैं। जो वस्तु अपनी नहीं, उसे बिना मालिक की आज्ञा से ले लेने पर वस्तु के स्वामी को दु:ख और रोष होता है। परपुरुष या परस्त्री गमन भी अशान्ति तथा ताप का कारण है। परिग्रह का आधिक्य तो स्पष्टत: संक्लेश और आपत्तियों का जनक है। इस प्रकार असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह - ये चारों ही पापवृत्तियाँ हिंसा के बढ़ाने में सहायक हैं। इसलिए इनके त्याग में अहिंसा के ही पालन का लक्ष्य निहित है। अतएव अहिंसा को 'परम धर्म' कहा गया है।

    द्रव्यहिंसा और भावहिंसा - अहिंसा के स्वरूप को समझने के लिये हमें पहले हिंसा का स्वरूप समझ लेना आवश्यक है। भगवान् महावीर ने हिंसा की व्याख्या करते हुए बतलाया कि ‘प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' अर्थात् दुष्ट अभिप्राय से प्राणी को चोट पहुँचाना हिंसा है। सामान्यतया हिंसा चार प्रकार की है - संकल्पी, आरंभी, उद्योगी और विरोधी। इन चारों हिंसाओं में चोट पहुँचाना' समान है, पर संकल्पी (जानबूझकर की जाने वाली) हिंसा में दुष्ट अभिप्राय होने से उसका गृहस्थ के लिए त्याग और शेष तीन हिंसाओं में दुष्ट अभिप्राय न होने से उनका अत्याग बतलाया गया है। वास्तव में उन तीन हिंसाओं में केवल द्रव्यहिंसा होती है और संकल्पी हिंसा में द्रव्यहिंसा और भावहिंसा दोनों ही हिंसाएँ होती हैं। जैनधर्म में बिना भावहिंसा के कोरी द्रव्य-हिंसा को पापबन्ध का कारण नहीं माना गया है। गृहस्थ अपने और परिवार के भरण-पोषण के लिए आरम्भ तथा उद्योग करता है और कभी-कभी अपनी, अपने परिवार, अपने समाज और अपने राष्ट्र की रक्षा के लिए आक्रान्ता से लड़ाई भी लड़ता है और उसमें हिंसा होती ही है। परन्तु आरम्भ, उद्योग और विरोध के करते समय उसका दुष्ट अभिप्राय न होने से वह अहिंसक है तथा उसकी ये हिंसाएँ क्षम्य हैं, क्योंकि उसका लक्ष्य केवल न्याययुक्त भरण-पोषण तथा रक्षा का होता है। अतएव जैनधर्म के अनुसार अपने द्वारा किसी प्राणी के मर जाने या दु:खी होने से ही हिंसा नहीं होती। संसार में सर्वत्र जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्त से मरते भी रहते हैं। फिर भी जैनधर्म इस ‘प्राणिघात' को हिंसा नहीं कहता। यथार्थ में 'हिंसारूप परिणाम' ही हिंसा है। एक किसान प्रातः से शाम तक खेत में हल जोतता है और उसमें बीसियों जीवों का घात होता है, पर उसे हिंसक नहीं कहा गया। किन्तु एक मछुआ नदी के किनारे सुबह से सूर्यास्त तक जाल डाले बैठा रहता है और एक भी मछली उसके जाल में नहीं आती। फिर भी उसे हिंसक माना गया है। इसका कारण स्पष्ट है। किसान का हिंसा का भाव नहीं है - उसका भाव अनाज उपजाने का है और मछुआ का भाव प्रतिसमय तीव्र हिंसा का रहता है। जैन विद्वान् आशाधर ने निम्न श्लोक में यही प्रदर्शित किया है -

    विष्वग्जीव-चिते लोके क्व चरन् कोऽप्यमोक्ष्यत।

    भावैकसाधनौ बन्ध-मोक्षौ चेन्नाभविष्यताम्॥

    'यदि भावों पर बन्ध और मोक्ष निर्भर न हों तो सारा संसार जीवराशि से खचाखच भरा होने से कोई मुक्त नहीं हो सकता है।'

    जैनागम में स्पष्ट कहा गया है -

    मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा।

    पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स।।

    ‘जीव मरे या चाहे जिये' असावधानी से काम करने वाले व्यक्ति को नियम से हिंसा का पाप लगता है। परन्तु सावधानी से प्रवृत्ति करने वाले को हिंसा होने मात्र से हिंसा का पाप नहीं लगता।'

    जैन पुराण युद्धों के वर्णनों से भरे पड़े हैं और उन युद्धों में अच्छे अणुव्रतियों ने भाग लिया है। पद्मपुराण में लड़ाई पर जाते हुए क्षत्रियों के वर्णन में एक सेनानी का चित्रण निम्न प्रकार किया है -

    सम्यग्दर्शनसम्पन्नः शूरः कश्चिदणुव्रती।

    पृष्ठतो वीक्ष्यते पत्न्या पुरस्त्रिदशकन्यया॥

    'एक सम्यग्दृष्टि और अणुव्रती सिपाही जब युद्ध में जा रहा है, तो उसे पीछे से उसकी पत्नी देख रही है और विचारती है कि मेरा पति कायर बन कर युद्ध से न लौटे - वहीं वीरगति प्राप्त करे और सामने से देवकन्या देखती है - यह वीर देवगति पाये और चाह रही है कि मैं उसे वरण करूँ।'

     यह सिपाही सम्यग्दृष्टि भी है और अणुव्रती भी। फिर भी वह युद्ध में जा रहा है, जहाँ असंख्य मनुष्यों का घात होगा। इस सिपाही का उद्देश्य मात्र आक्रान्ता से अपने देश की रक्षा करना है। दूसरे के देश पर हमला कर उसे विजित करने या उस पर अधिकार जमाने जैसा दुष्ट अभिप्राय उसका नहीं है। अत: वह द्रव्यहिंसा करता हुआ भी अहिंसा-अणुव्रती बना हुआ है। उसके अहिंसा-अणुव्रत में कोई दूषण नहीं आता।

    जैन धर्म में एक 'समाधिमरण' व्रत का वर्णन आता है, जो आयु के अन्त में और कुछ परिस्थितियों में जीवन-भर पाले हुए आचार-धर्म की रक्षा के लिए ग्रहण किया जाता है। इस व्रत में द्रव्य-हिंसा तो होती है पर भाव-हिंसा नहीं होती; क्योंकि उक्त व्रत उसी स्थिति में ग्रहण किया जाता है, जब जीवन के बचने की आशा नहीं रहती और आत्मधर्म के नष्ट होने की स्थिति उपस्थित हो जाती है। इस व्रत के धारक के परिणाम संक्लिष्ट न होकर विशुद्ध होते हैं। वह उसी प्रकार आत्मधर्म-रक्षा के लिए आत्मोत्सर्ग करता है जिस प्रकार एक बहादुर वीर सेनानी राष्ट्र-रक्षा के लिए हँसते-हँसते आत्मोत्सर्ग कर देता है और पीठ नहीं फेरता। यही कारण है कि इस व्रत का धारक वीर सेनानी की भाँति अहिंसक माना गया है। यदि कोई व्यक्ति इस व्रत का दुरुपयोग करता है तो किसी भी अच्छी बात का दुरुपयोग हो सकता है। बंगाल में 'अन्तक्रिया' का बहुत दुरुपयोग होता था। अनेक लोग वृद्धा स्त्री को गंगा किनारे ले जाते थे और उससे कहते थे - 'हरि बोल' अगर उसने 'हरि' बोल दिया तो उसे जीते ही गंगा में बहा देते थे। परन्तु वह 'हरि' नहीं बोलती थी, इससे उसे बार-बार पानी में डुबा-डुबाकर निकालते थे और जब तक वह 'हरि' न बोले तब तक उसे इसी प्रकार परेशान करते थे, जिससे घबराकर वह 'हरि' बोल दिया करती थी और वे लोग उसे स्वर्ग पहुँचा देते थे। 'अन्तक्रिया' का यह दुरुपयोग ही था। समाधिमरणव्रत का भी कोई दुरुपयोग कर सकता है। परन्तु दुरुपयोग के डर से अच्छे काम का त्याग नहीं किया जाता। किन्तु यथासाध्य दुरुपयोग को रोकने के लिए कुछ नियम बनाये जाते हैं। समाधिमरणव्रत के विषय में भी जैनधर्म में नियम बनाये गये हैं। अनशन कितना महत्त्वपूर्ण एवं आत्मशुद्धि और प्रायश्चित्त का साधन है। गाँधीजी उसका प्रयोग आत्मशुद्धि के लिए किया करते थे। किन्तु अपनी बात मनवाने के लिए आज उसका भी दुरुपयोग होने लगा है। लेकिन इस दुरुपयोग से अनशन का न महत्त्व कम हो सकता है और न उसकी आवश्यकता समाप्त हो सकती है। 

    इस विवेचन से हम द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसा के अन्तर को सहज में समझ सकते हैं और भाव-हिंसा को ही हिंसा जान सकते हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि जैनधर्म में द्रव्यहिंसा की छूट दे दी गई है। यथा-शक्य प्रयत्न उसको " भी बचाने के लिए उपदेश दिया गया है और आचार-शुद्धि में उसका बड़ा स्थान माना गया है। इस द्रव्यहिंसा के हो जाने पर व्रती (गृहस्थ और साधु दोनों) प्रतिक्रमण और प्रायश्चित्त करते हैं। छोटे-से-छोटे और बड़े-से-बड़े सभी जीवों में क्षमा-याचना की जाती है और प्रायश्चित्त में स्वयं या गुरु से कृतापराध के लिए दण्ड स्वीकार किया जाता है। जान पड़ता है कि जैनों के इस प्रतिक्रमण और प्रायश्चित्त का पारसी धर्म पर भी प्रभाव पड़ा है। उनके यहाँ भी पश्चात्ताप करने का रिवाज है। इस क्रिया से जो मंत्र बोले जाते हैं उनमें से कुछ का भाव इस प्रकार है -'धातु उपधातु के साथ जो मैंने दुर्व्यवहार किया हो, उसका मैं पश्चात्ताप करता हूँ।' 'जमीन के साथ जो मैंने अपराध किया हो, उसका मैं पश्चात्ताप करता हूँ।' 'पानी अथवा पानी के अन्य भेदों के साथ जो मैंने अपराध किया हो, उसका मैं पश्चात्ताप करता हूँ।' 'वृक्ष और वृक्ष के अन्य भेदों के साथ जो मैंने अपराध किया हो, उसका मैं पश्चात्ताप करता हूँ।' महताब, आफ़ताब, जलती अग्नि आदि के साथ जो मैंने अपराध किया हो, मैं उसका पश्चात्ताप करता हूँ।' पारसियों का यह विवेचन जैन-धर्म के प्रतिक्रमण से मिलता-जुलता है, जो पारसी धर्म पर जैनधर्म के प्रभाव का स्पष्ट सूचक है। अतः भाव-हिंसा को छोड़े बिना जिस तरह कोई व्यक्ति अहिंसक नहीं हो सकता, उसी तरह द्रव्य-हिंसा को छोड़े बिना निर्दोष आचार-शुद्धि नहीं पल सकती। इसलिए दोनों हिंसाओं को बचाने के लिए सदा प्रयत्न करना चाहिए।

    आचार-धर्म के आधार : गृहस्थ और साधु - इस तरह अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - ये पाँच व्रत हैं। इन व्रतों को गृहस्थ और साधु दोनों पालते हैं। गृहस्थ इन्हें एक देशरूप से और साधु पूर्णरूप से पालन करते हैं। गृहस्थ के ये व्रत अणुव्रत कहलाते हैं और साधु के महाव्रत साधु का क्षेत्र विस्तृत होता है। उसकी सारी प्रवृत्तियाँ सर्वजन हिताय और सर्वोदय के लिए होती हैं। वह ज्ञान, ध्यान और तप में रत रहता हुआ वर्ग से, समाज से और राष्ट्र से बहुत ऊँचे उठ जाता है, उसकी दृष्टि में ये सब संकीर्ण क्षेत्र हो जाते हैं। समाज से वह कम लेकर और उसे अधिक देकर कृतार्थ होता है। लेकिन गृहस्थ पर अनेक उत्तरदायित्व हैं। अपनी प्राणरक्षा के अलावा उसके कुटुम्ब के प्रति, समाज के प्रति, धर्म के प्रति और राष्ट्र के प्रति भी कुछ कर्तव्य हैं। इन कर्तव्यों को पालन करने के लिए वह उक्त अहिंसा आदि व्रतों को अणुव्रत के रूप में ग्रहण करता है और इन स्वीकृत व्रतों की वृद्धि के लिए अन्य सात व्रतों को भी धारण करता है, जो इस प्रकार है -

    (1) अपने कार्य-क्षेत्र की गमनागमन की मर्यादा निश्चित कर लेना 'दिग्व्रत' है। यह व्रत जीवनभर के लिए ग्रहण किया जाता है। इस व्रत का प्रयोजन इच्छाओं की सीमा बांधना है।

    (2) दिग्व्रत की मर्यादा के भीतर ही उसे कुछ काल और क्षेत्र के लिए सीमित कर लेना - आने-जाने के क्षेत्र को कम कर लेना देशव्रत है।

    (3) तीसरा अनर्थदण्डव्रत है। इसमें व्यर्थ के कार्यों और प्रवृत्तियों का त्याग किया जाता है।

    ये तीनों व्रत अणुव्रतों के पोषक एवं वर्धक होने से गुणव्रत कहे जाते हैं।

    (4) सामायिक में आत्म-विचार किया जाता है और खोटे विकल्पों का त्याग होता है।

    (5) प्रोषधोपवास में उपवास द्वारा आत्मशक्ति का विकास एवं सहनशीलता का अभ्यास किया जाता है।

    (6) भोगोपभोगपरिमाण में दैनिक भोगों और उपभोगों की वस्तुओं का परिमाण किया जाता है। जो वस्तु एक बार ही भोगी जाती है वह भोग तथा जो बार-बार भोगने में आती है वह उपभोग है। जैसे - भोजन, पान आदि एक बार भोगने में आने से भोग वस्तुएँ है और वस्त्र, वाहन आदि बार-बार भोगने में आने से उपभोग वस्तुएँ हैं। इन दोनों ही प्रकार की वस्तुओं का प्रतिदिन नियम लेना भोगोपभोगपरिमाण व्रत है।

    (7) अतिथिसंविभाग में सुपात्रों को विद्या, औषधि, भोजन और सुरक्षा का दान दिया जाता है, जिससे व्यक्ति का उदारता गुण प्रकट होता है। तथा इनके अनुपालन से साधु बनने की शिक्षा (दिशा और प्रेरणा) मिलती है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह सामाजिक जीवन-क्षेत्र में हो या राष्ट्रीय, इन 12 व्रतों का सरलता से पालन कर सकता है और अपने जीवन को सुखी एवं शान्तिपूर्ण बना सकता है।


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